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( १७५ ) धर्मरत्नकरण्डक में त्रिविध पूजा में आमिष पूजा द्वितीय कही है । जो नीचे श्लोक से विदित होगी
चारु पुष्पमिष स्तोत्रैस्त्रिविधा जिनपूजना। पुष्पगन्धादिभिश्चान्यैरष्टधेयं निगद्यते ॥१॥ ....
(वर्धनान सूरिकृत धर्मरत्नकरण्डके) अर्थ-सुन्दर पुष्प बढिया आमिष ( नैवेद्य) और अर्थगम्भीर स्तोत्र इन तीन से त्रिविध पूजा की जाती है।
अन्य प्राचार्य पुष्प, गन्ध, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, फल और जल इन अष्ट द्रव्यों से अष्ट प्रकारी पूजा कहते हैं ।
११. चुल्लकप्प में नव रस-विकृतियों के नाम गिनाते समय सूत्रकार ने “मज्जं मंसं" इस प्रकार आठवां मद्य और नवां मांस लिखा है । हमने मांस का विवेचन उस सूत्र खण्ड के निरूपण में कर दिया है । मद्य का विवेचन आगे के लिये रक्खा था, जो अब किया जाता है।
सूत्रकार के समय से पहले ही जैन श्रमणों के पेय जल में तुषोदक, यवोदक, सौवीर जल आदि का समावेश होता था। ये जल बहुधा प्रत्येक गृहस्थ के घरों में तैयार मिलते थे और जैन श्रमणों तथा अन्य भितुओं को गृहस्थ लोग भक्तिपूर्वक देते थे। जल, प्रायः अन्न तथा पिष्ट आदि के सन्धान से बनाये जाते थे। बीमारी भोग कर उठे हुए मनुष्यों को ये जल उनकी शक्ति बढाने तथा उनका स्वास्थ्य ठीक करने के प्रयोजन से दिये जाते थे ।