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( १४५ ) स्वल्पाकारा लोहिताङ्गा, श्वेतकापोतिकोच्यते । द्विपर्णिनीं मूलभवां, मरूणां कृष्णपिङ्गलाम् ॥५६॥ द्विरत्निमात्रां जानीयाद्, गोनसीं गोनसाकृतिम् । सक्षारां रोमशां मृवी, रसनेचरसोपमाम् ॥५६२। एवं रूपरसां चापि, कृष्णकापोविमादिशेत् । । कृष्ण-सर्पस्य रूपेण, वाराहीं कन्दसम्भवाम् ॥५६३॥ एकपर्णा महावीर्या, भिन्नाञ्जन-चयोपमाम् । छत्रातिच्छत्रके विद्याद्, रक्षोध्ने कन्द-सम्भवे ॥५६४॥ जरामृत्यु-निवारिण्यौ, श्वेतकापोतिसम्भवे । कान्तादशभिः पत्र-मयूराङ्गरहोपमैः ॥५६॥
- ( कल्पद्र मकोशः) अर्थ-जो स्वल्प साकार वाली और लाल अंग वाली, होती हैं वह श्वेत कापोतिका कहलाती है, श्वेत कापोतिका दो पत्तों वाली और कन्द के मूल में उत्पन्न होने वाली, ईषद् रक्त तथा कृष्ण पिङ्गला, हाथ भर ऊंची गौ की नाकसी और फणधारी सांप की आकृति वाली, क्षारयुक्त, रोंगटों वाली, स्पर्श में कोमल, जिला से चखने पर ईख जैसी मीठी होती है।
इसी प्रकार के स्वरूप और रस वाली को कृष्ण कापोतिका कहना चाहिए । कृष्ण कापोतिका काले सांप के रूपमें वाराही कन्द के मूल में उत्पन्न होती है, वह एक पत्ते वाली महावीर्य दायिनी, और अति कृष्ण अञ्जन समूह सी काली होती है, पत्र मध्य से