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( १०३ ) . किसी धर्मशास्त्र में 'गोवध का निषेध नहीं'- कौशाम्बी महाशय का यह कथन केवल भ्रम-पूर्ण है। 'वसिष्ठ धर्मशास्त्र' में वध्यावध्य प्राणियों के निरूपण में 'गौरगवयशरभाश्च' ।।४।। इस सूत्र में वसिष्ठजी ने गौ तथा गवयवर्जित शरभ जाति को अवध्य बताया है, इतना ही नहीं उन्होंने गौ-वध का कड़ा प्रायश्चित भी लिख दिया है जो इस प्रकार है
गां चेचन्यास्तस्याश्चर्मणाण परिवेष्टितः षण्मासान् कृच्छ तप्तकृच्छ वा तिष्ठेत् ॥ १८ ॥
अर्थात्-अगर कोई गौ का वध करे तो उसके आले चमड़े से अपने शरीर को वीट कर छः मास तक कृच्छ अथवा तप्त कृच्छ करे।
अध्यापक धर्मानन्द कहते हैं- दीक्षितों के लिए गोमांस खाने न खाने की चर्चा थी, दूसरे बिना विरोध गौमांस खाते थे । हम समझते हैं-अध्यापक धर्मानन्द का यह कथन ब्राह्मण जाति विषयक अरुचि मात्र का द्योतक है । गो-मांस के सम्बन्ध में उस समय के ब्राह्मणों में कितनी घृणा फैली हुई थी, यह तो ब्राह्मणों के धर्मशास्त्र पढ़ने से ही जाना जा सकता है । उनकी दृष्टि में जो पदार्थ अभक्ष्य होता, उसकी निवृत्ति के लिए वे उसे गो-मांस तुल्य बताकर छोडने का उपदेश करते थे। इस विषय के दृष्टान्तों से उनके शास्त्र भरे पड़े हैं, हम उनमें से केवल एक ही उदाहरण यहां प्रस्तुत करेंगे।