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मारना चाहिए न खाना चाहिए । देवताओं के उक्त कथन का उत्तर देते हुए याज्ञवल्क्य ने कहा मैं इनका मांस अवश्य खाता हूँ, यदि साजा हो तो । यह हकीकत नीचे लिखे शतपथ ब्राह्मण के उद्धरण से प्रकट होती है ।
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'स धेन्वैश्वानडुहश्च नाश्नीयात् । धेन्वनडुहौ वा इदं सर्व विभृस्ते देवा अब्रुवन घेम्वनडुद्दौ वा । इदं सर्वं विभृतो हन्त । यदन्येषाम् वयसां वीर्यं तदुधेन्वनडुहयोर्दधामेति तस्मादुधेन्वनडुहौ नाश्नीयात् तदुहोषाच याज्ञवल्क्योऽश्नाम्येवाहं मांसलं चेद् भवतीति'
'अश्नान्येषाहं मांसलं चेद् भवति' इस वाक्यांश में आये हुये 'अश्नामि' इस वर्त्तमान सूचक क्रिया पद का कौशाम्बी 'खाऊंगा' ऐसा भविष्य सूचक अर्थ करते हैं, यह भूल है । याज्ञवल्क्य ने अपनी वर्त्तमान स्थिति का स्वीकार मात्र किया है न कि भविष्य मैं खाने का आमह । 'मांसलं चेद् भवति' इस वाक्य - खंड का वे मांस बढ़ना अर्थ करते हैं, यह दूसरी भूल है, मांस बढ़ने के साथ इस वाक्य का कोई सम्बन्ध नहीं है । मांसल शब्द प्रयोग पर याज्ञवल्क्य यह कहना चाहते हैं कि, मैं मांस खाता अवश्य हूँ पर सभी गाय बैलों का नहीं, किन्तु जो मोटा ताजा : और तन्दुरुस्त होता है उसीका खाता हूँ ।
याज्ञवल्क्य ने वाजसनेयन में गौ को को मेध्य माना है, इस बात को हम स्वीकार करते हैं, परन्तु गौतमधर्म सूत्र के अतिरिक्त