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"नाकृत्वा प्राखिनां हिंसां, मांसमुत्पद्यते कचित् । न च प्राणि वधः स्वर्ग्य, स्तस्माद् यागे वधोऽवधः ॥ २ ॥
अर्थ - प्राणी वध किये विना कहीं भी मांस उत्पन्न नहीं होता और प्राणिवध स्वर्ग देने वाला नहीं है, इस स्थिति में यज्ञ में किये जाने वाले प्राणिवध को वध नहीं कहना चाहिए ।
वसिष्ठ स्मृतिकार के उपर्युक्त मन्तव्य से हम सहमत नहीं हो सकते । यदि प्राणिवध स्वरूप से ही अस्वर्ग्य है तो यज्ञ में करने पर भी अस्वर्ग्य ही रहेगा, और उससे हिंसाजन्य दोष की आपत्ति अनिवार्य होगी, क्योंकि वैदिक मन्त्रों से अभिमन्त्रित करने पर भी वध्य पशु को वध के समय दुःख होता है यह निर्विवाद बात है, और पर प्राणी को दुःख उत्पन्न करना यह दोष रूप है, इसका कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता । मध्य काल के यज्ञों में पशुवध की प्रवृत्ति बढ़ जाने के कारण पिछले लेखक उसका सहसा विरोध नहीं कर सकते थे। पिछले लेखकों में उसका विरोध करने का साहस नहीं रहा। परिणाम स्वरूप "यज्ञे वधोऽवधः" कहकर उसका समाधान किया ।
मधुपर्क
वैदिक धर्म साहित्य में "मधुपर्क" यह शब्द अतिप्रसिद्ध है, पर इसका वास्तविक अर्थ बहुत कम मनुष्य जानते हैं । मधु शब्द यहां पर मधुर याने मीठे पदार्थ का वाचक है, और पके शब्द का अर्थ है सम्पर्क याने सम्बन्ध, इससे सिद्ध हुआ कि मधुपर्क यह