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नामक जिस कृति का अनुवाद नहीं हुआ था उसका अनुवाद भी मेरे विद्वान सहदयी मित्र डो० रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने किया। अन्त में सम्पूर्ण प्रेसकोपी संशोधन के लिये मेरे पास भेजी। वह प्रेसकोपी विभिन्न व्यस्तताओं के कारण मैं देख नहीं पाया तथापि सिंहावलोकनन्याय से देख गया। कहीं-कहीं अर्थ की दृष्टि से विचारणा-सापेक्ष स्थल थे और 'वीरस्तव' का अनुवाद पर्याप्त परिश्रमपूर्वक करने पर भी यत्र-तत्र सन्तोषकारक प्रतीत नहीं हुआ, अतः आवश्यक सूचनाओं के साथ प्रेसकोपी अनुवाद को प्रेषित की। उन्होंने भी पुनः अपेक्षित संशोधन - परिवर्तन किया, तथापि पुनरावलोकन की अपेक्षा रखने योग्य क्लिष्ट कृति होने से इस विषय का कोई सुयोग्य विद्वान् इस अनुवाद को सूक्ष्मदृष्टि से देख ले और अशुद्ध एवं शंकास्पद जो स्थल हों उन्हें निःसंकोच बतलाये अथवा इसका संपूर्ण अनुवाद पृथकरूप से करके प्रेषित करने की महूती कृपा करें तो अत्यन्त आनन्द होगा तथा उसके द्वारा इसके पश्चात् मुद्रित होनेवाला गुजराती अनुवाद पाटकों को प्रमाणितरूपसे दिया जा सकेगा ।
प्रकाशन के लिये मैंने प्राथमिक योजना इस प्रकार बनाई थी कि प्रत्येक श्लोक के नीचे गुजराती और हिन्दी अनुवाद दिया जाए जिससे मेरे गुजराती दानदाता एवं पाठकों को पूर्ण सन्तोष हो, किन्तु गुजराती अनुवाद के लिये मैं समय निकालने की स्थिति में नहीं था। दूसरे के द्वारा भाषान्तर करनेवाले का प्रयास किया किन्तु उसमें पर्याप्त समय लगता और सुयोग्य अनुवाद न हो तो उसका कोई फल नहीं । ऐसी स्थिति में अभी तो हिन्दी अनुवाद से ही सन्तोष किया है। भविष्य में यथाशक्ति शीघ्र गुजराती अनुवाद करवाकर इसका प्रकाशन किया जाए इसके लिए अवश्य प्रयत्नशील रहूँगा । कोई संस्कारी भाषा के लेखक मुनिराज अथवा कोई विद्वान ऐसे उपकारक कार्य करने के लिये तैयार हो, तो वे मेरे साथ अवश्य पत्र-व्यवहार करें ऐसी मेरी विनम्र प्रार्थना है ।
प्रस्तुत स्तोत्र काव्य, अलंकार, अर्थ, भाषा तथा विविध दृष्टि से किस प्रकार उत्तम कोटि के हैं, इस सम्बन्ध में मैं कुछ भी नहीं लिख पाया हूँ। इसके सम्पादक डो० त्रिपाटीजी ने उपोद्घात में इस पर कुछ लिखा तथापि ओर कोई सुयोग्य विद्वान इसकी समीक्षा करके भेजेंगा तो गुजराती आवृत्ति में उसे अवश्य प्रकाशित करूँगा तथा गृहस्थ विद्वान होगा तो उन्हें योग्य पुरस्कार देने की व्यवस्था भी संस्था की ओर से की जाएगी।
स्तोत्र के श्लोकों के टाईप जो प्रयोगों में लाये गये हैं, वे इनसे ड्योढ़े मोटे प्रयोग में लाने चाहिये थे किन्तु प्रेस में सुविधा न होनेसे वैसा नहीं हो सका ।
इस स्तोत्रावली में मुद्रित स्तोत्रों में से बहुत से तो यद्यपि इससे पूर्व भिन्न-भिन्न संस्थाओं के द्वारा पुस्तकों अथवा प्रतियों के आकार में छप चुके हैं तथा कुछ स्तोत्र गुजराती अनुवाद के साथ भी छपे है किन्तु इसमें कुछ स्तोत्र पहले बिलकुल प्रकाशित नहीं हुए थे और शेष इतस्ततः पृथक्पृथक् मुद्रित थे उन समस्त स्तोत्रों को एक ही साथ अर्थसहित प्रकाशित करने का यह पहला अवसर है । उपाध्यायजी के स्तोत्र 'स्तोत्रावली' के नाम से प्रसिद्ध हैं अतः इस ग्रन्थ का नाम भी 'स्तोत्रावली' ही रखा गया है। बीमारी के कारण हास्पीटल में शय्याधीन होने से इस सम्बन्ध में विस्तृत परिचय लिखना संभव नहीं था अतः संक्षेप में ही उल्लेख किया है ।
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