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बहुत कृपा दृष्टि है। भारतवर्ष में एक सगे भाई के समान भाईबन्दी के साथ रहने का दावा जैन ही कर सकते हैं। मेरे परम मित्र डॉक्टर प्राणजीवन जैन हैं, जिनके चरित्र का मैं बहुत सम्मान करता हूँ। रायचंद भाई (जैन) मेरे मित्र थे और शहर बम्बई में मेरे रहने का जो स्थान है, वह भी एक देवाशंकर जैन भाई का है।
महात्मा गाँधी ने जैन संत श्रीमद् रायचंद भाई के विषय में एक बार कहा था 'बहुत बार कह और लिख गया हूँ कि मैंने बहुतों के जीवन में से बहुत कुछ सीखा है, परन्तु सबसे अधिक किसी के जीवन से मैंने ग्रहण किया हो, तो वह कवि श्रीमद् रायचन्द्र के जीवन से है। दया धर्म भी मैंने उनके जीवन से सीखा है। खून करने वाले से भी प्रेम करना यह दया धर्म मुझे कवि ने सिखाया है। हा गाँधी जी ने प्रसिद्ध जैन तीर्थ शत्रुजय (गुजरात) का उल्लेख करते हुए कहा, "मैं जब श्री पालीताना गया। उस समय मुझे श्री शत्रुजय जाना ही था, और वहाँ केवल सैर के वास्ते नहीं, बल्कि भक्ति से जाना था। उसके दर्शन करके मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं पाँव की रक्षा के लिए लकड़ी की खड़ाऊँ पहनता हूँ और उनकी आवश्यकता रहती है। पहाड़ पर चढ़ते हुए खड़ाऊँ उतरवाने में जैन बन्धु संकोच कर रहे थे, परन्तु मैं समझ गया और उनके बिना ही ऊपर चढ़ गया।
अहमदाबाद में एक बार जैन सेठ माणेकलाल जेठा द्वारा स्थापित सार्वजनिक पुस्तकालय के उद्घाटन अवसर पर गाँधी जी ने कहा था - “गुजरात में जैन धर्म की पुस्तकों के अनेक भण्डार हैं, परन्तु वे वणिकों के घर में ही शोभायमान हैं। वे उन ग्रन्थों को सुन्दर रेशमी वेष्टनों में लपेट कर रखे हुए हैं। ग्रन्थों की यह दशा देखकर मेरा हृदय आहत हो रोता है, परन्तु यदि मैं रोता रहता, तो आज 63 वर्ष तक कैसे जीता? मेरा मन तो यह है, कि यदि चोरी का दोष न गिना जाये, तो मैं इन ग्रन्थों को चुरा लूं और इन वणिकों से कहूँ लाला लाजपत राय कि यह तुम्हारे लायक नहीं थे, इसलिए मैंने चुरा लिये।7 इस प्रकार गाँधी जी समय-समय पर जैन समाज को अपना मार्गदर्शन भी देते रहते थे।
आधुनिक भारत के शिल्पी, दार्शनिक, समाज-सुधारक एवं स्वतन्त्रता सेनानी लाला लाजपतराय का जन्म एक जैन परिवार में हुआ था। लाला जी ने जुलाई 1916 के मॉडर्न-रिव्यू में प्रकाशित अपने लेख 'अहिंसा परमो धर्मः' में स्वयं लिखा था, मेरा जन्म एक जैन कुल में हुआ है। मेरे दादा अहिंसा के पक्के अनुयायी थे। साँप चाहे उन्हें काट लेता, पर वह उसे कभी नहीं मारते थे। वह किसी छोटे से कीड़े-मकोड़े को कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचाते थे। वह घण्टों पूजा-पाठ में लगे रहते थे। बिरादरी में उनका अच्छा मान और आदर होता था। उनके एक भाई साधु थे, जो अपने धर्म
12 :: भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में उत्तरप्रदेश जैन समाज का योगदान