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________________ भी कहा आप देहान्त तक दुःख भोग कर दूसरे को सुख देने का नाम अहिंसा धर्म है। अपनी अहिंसा समझ को अधिक स्पष्ट किया-हिंसा का अभाव अहिंसा नहीं है, वह तो उसका रूप भर है। उस अहिंसा का प्राण प्रेम है। प्रेम से और जीवन्त शक्ति क्या है? फिर भी आत्मगत और व्यक्तिगत प्रेम में अन्तर बांधना कठिन हो जाता, और 'प्रेम' शब्द में निषेध की शक्ति भी कम रहती; इसी से प्रेम न कह कर कहा गया ‘अहिंसा' वह अहिंसा निष्क्रिय (पैसिव) पदार्थ नहीं है, वह तेजस्वी और सक्रिय तत्त्व है। प्रकट रूप से गांधी की अहिंसा प्रेम से उदभत होकर व्यवहार के धरातल को पुष्ट करती है। उनकी दृष्टि में दूसरे के सुख दुःख का जहाँ असर नहीं है, वहाँ दया नहीं है, जहाँ दया नहीं वहाँ धर्म नहीं है, अहिंसा नहीं है। दूसरे का सुख ढूँढने में ही तो अहिंसा का शोध हुआ। मनुष्य ने जब अपने को दूसरे में देखा और दूसरे को अपने में देखा, तभी उसने दूसरे के सुख से सुखी और दुःख से दुखी होना सीखा। इससे उसने अपने ऐहिक सुख के त्याग में आत्मिक सुख का अनुभव किया और इसी से वह अपने लिए बेखबर जगत् की हिंसा करने से अटका। स्पष्टतया व्यक्ति के भीतर छुपा दया-प्रेम भाव ही उसे जागतिक हिंसा से बचाता है और उसके भीतर मानवीय चेतना का संचार करता है। 'अहिंसा कोई यांत्रिक क्रिया नहीं है। यह हृदय का सर्वोत्तम गुण है।' इस गुण का विकास ही मानव जीवन की सार्थकता है। हमारे हृदय में जो अहिंसा सुप्त रूप से पड़ी हुई है उसे विकसित करना महत्त्वपूर्ण है पर इसका उद्भव तो सच्चे बल से ही होगा। क्या हमारे अन्दर इस प्रकार की बलवान अहिंसा है? यह प्रश्न अहिंसा की चेतना को झंकृत करने के लिए जरूरी है। गांधी के अहिंसा संबंधी चिंतन में वैयक्तिक और सामाजिकता का समावेश है। उनकी अहिंसा सोच में जहां प्रेम, ईश्वर और सत्य की युति है वहीं महाप्रज्ञ की अहिंसा संबंधी सोच में आत्मविशुद्धि की स्वीकृति के साथ समाजिक, राजनैतिक समस्याओं के समाधान की शक्ति है। अहिंसा के सैद्धांतिक पक्ष को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुति महाप्रज्ञ की निर्मल प्रज्ञा का प्रसाद है-'अहिंसा एक रचनात्मक उपक्रम है। इसका अर्थ केवल 'मत मारो' इतना ही न लें। वह तो है ही, पर किसी को सताओ मत, पीडा मत पहँचाओ। किसी का शोषण मत करो। किसी के साथ अन्याय मत करो। समस्त प्राणी मात्र को आत्मतुला के समान समझने का प्रयत्न करो। सबको अपनी आत्मतुला पर तौलें। जो व्यवहार आपको पसन्द नहीं है, वह व्यवहार आप भी किसी के साथ न करें। जो व्यक्ति हर प्राणी को अपनी दृष्टि से देखता है, अपने समान समझता है, वह किसी को भयभीत नहीं करता, पीड़ित नहीं करता, चोट नहीं पहुँचाता, धोखा नहीं देता। आत्म तुला का यह सिद्धांत अहिंसा का प्रायोगिक स्वरूप है।' इस कथन के आलोक में अहिंसा का आचरण वैयक्तिक है पर प्रभाव व्यापक होता है। व्यापकता का अंदाजा उनके शब्दों में गुंफित है-'अहिंसा वह अमृत है जो समाज व राष्ट्र को जीवित रखता है।' अर्थात् उसके अस्तित्व को कायम रखता है। अहिंसा के भावात्मक पक्ष में मानवीय मूल्यों का ग्रहण है-अहिंसा में मैत्री है, सद्भावना है, सौहार्द है, एकता है, सुख और शान्ति है। अहिंसा का स्वरूप उपशम, मृदुता, सरलता, सन्तोष, अनासक्ति और अद्वेष है।" अहिंसा स्वरूप के संबंध में महाप्रज्ञ का अभिमत रहा, 'अहिंसा का स्वरूप व्यापक है। असत् का संवरण और सत् का प्रवर्तन अहिंसा है।' अर्थात् मानव जितना असत्-पापकारी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण और पापाचार रहित प्रशस्त प्रवत्तियों का समाचरण करता है उसकी अहिंसा उतनी ही तेजस्वी बनती है। महाप्रज्ञ अहिंसा के विराट् स्वरूप के पक्षधर थे उन्हीं के शब्दों में-मैनें बार-बार इस बात को भेद दृष्टि के आधारभूत मानक / 371
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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