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________________ को दूषित करने वाली तथा स्वस्थ मनोवृत्ति का चित्रण एक साथ किया हैं-जो दूसरों को पराधीन . रखना चाहते हैं, हीन बनाये रखना चाहते हैं, जातिगत भेदभाव रखते हैं; छुआछूत, ऊँच-नीच और काले-गोरे के पचड़े में फंसे हुए हैं, ये अभय नहीं हैं; शान्त नहीं हैं। जिनकी भोग-लिप्सा बढ़ी हुई है, जो परिग्रह के पुतले और शोषण के पुंज बने हुए हैं शांति उनके लिए प्रश्नचिह्न बनी हुई है? शांतिपूर्ण जीवन वही बिता सकता है, जो बुराइयों से दूर है। बुराई से दूर वही रह सकता है, जिसमें प्रतिरोधात्मक शक्ति या स्व-नियन्त्रण का पर्याप्त विकास है। वैयक्तिक शांति के साथ समतापूर्ण समाज व्यवस्था का निदर्शन है। इससे उनकी सामाजिक सोच का स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है। वे अपने आध्यात्मिक प्रयत्नों के द्वारा स्वस्थ-समाज को आकार देने में प्रयत्नशील रहे। जिस समाज में रहते हैं उसके प्रति वे अपने नैतिक दायित्व का वहन बखूबी करते रहे हैं। समय-समय पर सामाजिक परिवेश में आने वाले अवरोध को गतिशीलता प्रदान करते। उनके शब्दों में सामदायिकता की भमिका को समझना आवश्यक है। सहानभति. सेवा, सहयोग, सापेक्षता के बिना किसी भी प्राणी का जीवन नहीं चल सकता इसलिए हमें सामुदायिकता का विकास करना है। वर्तमान समाज व्यापी विषमताओं के संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ का अभिमत रहा है कि अर्थ के प्रति अति आकर्षण के कारण अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं। बेरोजगारी, भूखमरी के कारण हिंसा बढ़ रही है। कछ व्यक्ति अर्थ के प्रति इतने लोलप हो गए. सविधा के प्रति इतने लोलप हो गए कि सब कुछ भोगना चाहते हैं। वैयक्तिक संग्रह की मनोवृत्ति ने अर्थ के विषय में अनर्थकारी समस्याएं पैदा कर दी है।.....जब तक धर्म के लोग राजनीति के लोग, समाज के प्रमुख लोग और सत्ता पर बैठे लोग सब मिलकर चिंतन नहीं करेंगे तब तक समस्या का समाधान कोई अकेला नहीं कर सकता। यह प्रश्न केवल व्यक्ति का नहीं, समाज का नहीं, पूरे राष्ट्र का है। इसलिए इस विषय में, नैतिकता के विषय में सब लोगों को चिंतन करना चाहिए और निर्णय करना चाहिए कि हम कैसे समाज को इस अभिशाप से मुक्त कर सकें। इस समस्या के उपचार हेतु उन्होंने मानव के चरित्र बल पर प्रकाश डाला और कहा जब चरित्र बल बढ़ता है तब आदमी केवल व्यक्तिगत संग्रह पर ही नहीं, मूर्छा पर भी नियन्त्रण पाने का प्रयत्न करता है अतः अहिंसा का विकास और अमूर्छा का विकास ये दो महान गुण हैं।....जिस व्यक्ति या समाज में इनका यथेष्ट विकास होता है, वही चरित्रवान् कहलाने का औचित्य पाता है। उन्होंने इसकी प्रतिष्ठा में अणुव्रत के नियमों का मनन उपयोगी बतलाया। सामाजिक समरसता के लिए आचार्य महाप्रज्ञ ने समग्र व्यक्तित्व विकास को महत्त्वपूर्ण बतलाया। सुख और शांति के लिए दृष्टिकोण के परिवर्तन पर बल दिया-आध्यात्मिक व्यक्ति का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बनें और वैज्ञानिक व्यक्ति का दृष्टिकोण आध्यात्मिक बनें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बिना समस्या के समाधान के नियमों को नहीं खोजा जा सकता। आध्यात्मिक दृष्टिकोण के बिना अहिंसा, करुणा और मैत्री का व्यवहार नहीं किया जा सकता। वर्तमान की प्रमख समस्याएँ-भखमरी और गरीबी, भ्रष्टाचार, विकास की असंतुलित अवधारणा, नैतिकता से शून्य अर्थशास्त्रीय अवधारणा और समस्या के प्रति गंभीर चिंतन के प्रति वे अपना मौलिक आध्यात्मिक विज़न रखते थे। विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु अहिंसा प्रशिक्षण के अतंर्गत उन्होंने आर्थिक स्वास्थ्य हेतु आवश्यक बतलाया है . विसर्जन की मनोवृत्ति का प्रशिक्षण। 358 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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