SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंसा के मूल बीज रागादि भावों का चित्रण है, वह इस बात का द्योतक है कि जब तक भावनात्मक स्तर पर राग-द्वेष का अस्तित्व विद्यमान रहेगा तब तक अहिंसा की उच्च स्थिति का विकास संभव नहीं होगा। अहिंसा का शाश्वत सिद्धांत है-राग-द्वेष-मुक्त क्षण में जीना। ‘शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखना ही अहिंसा है।'27 इस कथन में मैत्री का संदेश ध्वनित है। इसे विधेयात्मक अहिंसा का स्वरूप भी कहा जा सकता है। इससे प्रकट होता है कि अहिंसा में मैत्री है, सद्भावना है, सौहार्द है, एकता है। इसका संवादी कथन है- 'मेत्तिं भूएसु कप्पए' । प्राणी मात्र के प्रति मैत्री का बर्ताव करो। इसमें सह-अस्तित्व का सिद्धांत समाया हुआ है। सह-अस्तित्व का भाव विश्व-शांति की समस्या का बहुत बड़ा समाधान है। सह-अस्तित्व का सिद्धांत अहिंसा का प्राणभूत तत्त्व है। कथन में अतिरंजना न होगी कि सह-अस्तित्व के बिना अहिंसा सफल नहीं, अहिंसा के बिना सह-अस्तित्व सफल नहीं। दोनों को बांटा नहीं जा सकता। जैविक, वैयक्तिक, सामाजिक परिवेश को आप्यायित करने वाली महत्त्वपूर्ण अहिंसा की परिभाषा आचारांग सूत्र में मिलती है-'सब प्राणियों को मत मारो, उन पर अनुशासन मत करो, उनका परिग्रह (ममकार) मत करो, उनको परितापित मत करो, उनका प्राण वियोजन मत करो, यह (अहिंसा) धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। इस संदर्भ में जीववाची चार शब्दों-प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का संज्ञान महत्त्वपूर्ण है। आचारांग भाष्य के अनुसार प्राण-जो आन, अपान, उच्छ्वास और निःश्वास से युक्त हैं-वे प्राण कहलाते हैं। भूत-जो थे, हैं और रहेंगे-वे भूत कहलाते हैं। जीव-जिससे जीव जीता है, जो जीवत्व और आयुष्य कर्म का उपजीवी है-वह जीव है। सत्त्व-जिसमें शुभ-अशुभ कर्मों की सत्ता है-वह सत्त्व है। प्रस्तुत अहिंसा सूत्र में पाँच आदेश हैं 1. उनका हनन नहीं करना चाहिए-दंड, चाबुक आदि साधनों से। 2. उनका हनन नहीं करना चाहिए तथा उन पर शासन नहीं करना चाहिए-बल पूर्वक आदेश देकर। 3. उनका परिग्रह नहीं करना चाहिए ये मेरे भृत्य, दास-दासी हैं-इस प्रकार ममकार के द्वारा। 4. उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए-शारीरिक और मानसिक पीड़ा उत्पन्न कर। 5. उनका उद्रवण नहीं करना चाहिए-प्राण वियोजन के द्वारा। आचार्य महाप्रज्ञ ने आशय स्पष्ट किया-भगवान महावीर का यह संदेश है कि किसी को मत मारो, मत सताओ, पीड़ा मत दो, दास-दासी बना हुकूमत मत करो, बलात् किसी को अपने अधीन मत करो। जो अपनी वेदना को समझता है, वही दूसरों की वेदना को समझता है। जो व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम के लिए जन्म मृत्यु से मुक्त होने के लिए मान, प्रतिष्ठा और बड़प्पन के लिए दूसरे जीवों को मारते हैं, वह उनके हित के लिए नहीं होता। हिंसा कायरता है। जो सत्त्वहीन होता है, वही दूसरों को मारता है। अहिंसा वीर धर्म है। भगवत् वाणी में अहिंसा अनेक रूपों में प्रकट हुई–'प्राणीमात्र को दुःख न देना, शोक उत्पन्न न करना, न रुलाना, न अश्रुपात करना, न उन जगज्जीवों को ताड़न-तर्जन देना।'' इसमें जगज्जीव शब्द विशेष रूप से मननीय है। इसका आशय सूत्रकृतांग सूत्र के मोक्ष मार्ग में अधिक स्पष्ट हुआ अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप / 33
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy