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________________ सत्य सीमाओं में बंटा हुआ नहीं होता । उसका स्वरूप निरपेक्ष होता है । सत्य - सत्य ही है । एक के लिए एक प्रकार का और दूसरे के लिए दूसरे प्रकार का नहीं होता । सत्य की खोज के प्रश्न को समाहित करते हुए भगवान् महावीर ने कहा- 'अप्पणा सच्च मेसेज्जा' स्वयं सत्य की खोज करो। इस संदर्भ में ऐसा नहीं होता कि एक व्यक्ति सत्य खोजे और दूसरा उपयोग करे । वैज्ञानिक जगत् में यह होता है कि व्यक्ति सत्य को खोजे और सारा जगत् उसका लाभ उठायें। किन्तु अध्यात्म का संसार इससे भिन्न है । इसमें जो सत्य को खोजता है वही उसका उपयोग करता है । सत्य का साधक ही अहिंसक होता है । समाज में पहनाव, खान-पान, धार्मिक आस्था, राजनैतिक विश्वास आदि की भिन्नताएं सर्वत्र परिलक्षित हैं। समन्वय एक ऐसा सूत्र है जो भेद में अभेद दृष्टि पैदा करता है । विरोध में अविरोध की चेतना जगाता है । अनेकांत का एक सूत्र है समन्वय । वह भिन्न प्रतीत होने वाले दो वस्तु धर्मो में एकता की खोज का सिद्धांत है। इसका व्यापक संदर्भ है- मैं अकेला नहीं हूँ, दूसरे का भी अस्तित्व है। हम दोनों में संबंध है। उस संबंध के आधार पर ही हमारी जीवन यात्रा चलती है। इस संबंध की अवधारणा के आधार पर सृष्टि संतुलन की व्याख्या की जा सकती है।" यह समन्वय के व्यापक संदर्भ की स्वीकृति है | इसके सहारे परिवार, समाज, राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का पर्याय बनाया जा सकता है । समन्वय के पाँच सूत्रों का उल्लेख किया गया • मण्डनात्मक नीति बरती जाए। अपनी मान्यता का प्रतिपादन करें किन्तु दूसरों पर मौखिक अथवा लिखित आक्षेप न किया जाए । · दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता रखी जाए। दूसरे सम्प्रदाय और उसके अनुयायियों के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना का प्रचार न किया जाए। कोई साम्प्रदाय - परिवर्तन करे तो उसके साथ सामाजिक बहिष्कार आदि अवांछनीय व्यवहार न किया जाए। धर्म के मौलिक तत्त्वों-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को जीवनव्यापी बनाने का सामूहिक प्रयत्न किया जाए ।" राष्ट्रीय संदर्भ में सम्प्रदाय निरपेक्षता महत्त्वपूर्ण मूल्य है । प्रत्येक व्यक्ति में इस चेतना का जागरण जरूरी है। विश्व में अनेक धर्म - हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, जैन- मुस्लिम आदि प्रचलित हैं । सूक्ष्म मतमतान्तरों के आधार पर ये धर्म भी सम्प्रदाय एवं पंथों में बंट गए । मोटे रूप में धर्म वृक्ष है । मत, पंथ और सम्प्रदाय इसकी शाखाएँ हैं । नाम के अन्तर को छोड़ कोई मूलधारा से भिन्न नहीं है । शाखा का अस्तित्व वृक्ष के बिना नहीं है और बिना शाखा के वृक्ष, वृक्ष नहीं कहलाता । सम्प्रदायों की उपयोगिता धर्म से जुड़े रहने तक ही है अलग से नहीं । धर्म के मौलिक तत्त्व मानवता के संरक्षक हैं। उनके विकास हेतु सम्प्रदाय निरपेक्षता की चेतना का जागरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हर व्यक्ति वाणी, लेखन, विचार-प्रकाश और धार्मिक उपासना करने में स्वतंत्र है । विविध भाषाएं, विविध जातियां विविध धर्म-सम्प्रदाय हैं । किन्तु इन विविधताओं के होने पर भी सब एक (मानव) हैं। साम्प्रदायिक विग्रह से एकता की शक्ति कुंठित होती है । संप्रदाय निरपेक्षता व्यक्ति के हृदय में प्रत्येक धर्म-संप्रदाय के प्रति आदर-सम्मान के भाव पैदा करता है और व्यक्ति की सोच को उदार बनाता है। परिवर्तन की सशक्त कड़ी : मूल्य बोध / 339
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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