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________________ लेश्याध्यान : रासायनिक परिवर्तन भावतंत्र में उठने वाली दूषित तरंगों के परिवर्तन में रंगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका स्वीकृत है। रंगों के प्रयोग से जहाँ शारीरिक बीमारियाँ, मानिसक दुर्बलताओं से मुक्ति मिलती है वहीं रंगों के ध्यानश्याध्यान के प्रयोग से आध्यात्मिक मूर्च्छा का भंजन होता है । परिणामतः हृदय परिवर्तन घटित होता है । रूपान्तरण की प्रक्रिया चेतना के सूक्ष्म स्तर पर घटित होती है । चेतना के उस स्तर पर पहुँचने के लिए रंगों की उपादेयता है । रंग व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं । वे व्यक्तित्व पर जितना प्रभाव डालते हैं, उतना प्रभाव और कोई नहीं डाल सकता। रंग स्थूल एवं सूक्ष्म उभय व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। इस संबंध में जैन आगमों में विस्तार से वर्णन मिलता है जो 'लेश्या' शब्द से जाना जाता है। महाप्रज्ञ के शब्दों में 'चरित्र - परिवर्तन का मूल आधार है लेश्या का परिवर्तन । दूषित आभामंडल दूषित चरित्र का प्रतीक है, विशुद्ध आभामंडल निर्मल चरित्र का प्रतीक है।' लेश्याध्यान का प्रयोग चरित्र शुद्धि का प्रयोग है । वृत्तियाँ, भाव या आदतें - इन सबको उत्पन्न करने वाला सशक्त तंत्र है - लेश्या - तंत्र । लेश्यातंत्र की शुद्धि ही परिवर्तन का मूल आधार है । अप्रशस्त लेश्याएँ-कृष्ण, नील, कापोत-क्रूरता, हिंसा, अठारह पापस्थान, हत्या की भावना, कपट, असत्य बोलने की भावना, प्रवंचना, धोखाधड़ी, विषय की लोलुपता, प्रमाद, आलस्य जनित दोषों की जनक है। विशेष रूप से - अविरति, क्षुद्रता, निर्दयता, नृशंसता, अजितेन्द्रियता-ये कृष्ण लेश्या के परिणमन हैं । ईर्ष्या, कदाग्रह, अज्ञान, माया, निर्लज्जता, विषय-वासना, रस-लोलुपता-ये नील लेश्या के परिणमन हैं । वक्रता वक्र आचरण, अपने दोषों को ढाँकने की मनोवृत्ति, परिग्रह का भाव, मिथ्या दृष्टिकोण, दूसरे के मर्म भेदन की वृत्ति, अप्रिय कथन-ये कापोत-लेश्या परिणमन हैं। 30 ठीक इनसे भिन्न भावों की नियामक है प्रशस्त लेश्याएं - पद्म, तैजस, शुक्ल जो मानव में दिव्यता का संचार करती है। दूषित भावों और विकृत विचारों के द्वारा जो जहर शरीर में पैदा होता है उसे बाहर निकालने की अभूतपूर्व पद्धति है - लेश्याध्यान । रंगों के ध्यान से संचित विष बाहर निकलते हैं और भाव निर्मल बनते हैं । इस विषय में महाप्रज्ञ का निजी अनुभव था। प्रशस्त रंगों का ध्यान भावों को निर्मल बनाने में उपयोगी होता है । अनुप्रेक्षा हृदय परिवर्तन का आधारभूत प्रयोग है - अनुप्रेक्षा । व्यक्ति में पनपने वाली विकृतियों, दुष्प्रवृत्तियों, असामान्य मनोदशाओं का उपचार अनुप्रेक्षा के प्रयोगों से सुगम बन जाता है। जिसे हम बदलना चाहते हैं, जिस आदत में परिवर्तन लाना चाहते हैं, उसका विश्लेषण करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा ध्यान का एक प्रयोग है। जब अनुप्रयोग के स्तर पर पुनरावृति करते हैं बार-बार दोहराते हैं, तो धीरेधीरे एक क्षण ऐसा आता है, जब वह बाहर की बात भीतर तक चली जाती है और जो बदलने का स्थान है, वहाँ तक पहुँचती है और परिवर्तन शुरू हो जाता है । 31 इस प्रक्रिया में आत्म-निरीक्षण और आत्म-विश्लेषण का एक साथ प्रयोग चलता है । सरल शब्दों में भीतर में पलने वाली वृत्तियों का दर्शन एवं उसके परिष्कार का संकल्प । परिणाम स्वरूप पूर्व धारणाओं के परिष्कार एवं नव निर्माण इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मानसिक स्वास्थ्य का उपाय है- सुझाव । वर्तमान मनोविज्ञान की भाषा में इसे सजेशन या ऑटोसजेशन कहा जाता है । सुझाव स्वयं से स्वयं को देना अथवा दूसरे से ग्रहण करना- ये दोनों 334 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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