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________________ के बाद शुरू होती है। डांस बारों में, क्लबों में लाखों-लाखों रूपये एक ही रात में उड़ा देते हैं। इस सच्चाई के साथ उन्होंने अपने भावनात्मक पक्ष को भी उजागर किया-मैं जब भी यह सुनता और पढ़ता हूँ कि बड़े और धनाढ्य लोग विवाह और दूसरे आयोजनों में करोड़ों रूपये फूंक रहे हैं तो बरबस कहना पड़ता है कि ये ही लोग हैं, जो हिंसा और अशांति को बढ़ावा दे रहे हैं, नक्सलवाद, उग्रवाद जैसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं। वे अपने चिंतन को बदलें। पैसा कमाना एक कला है, किंतु पैसे का उपयोग कहाँ और किस तरह करना है, यह विवेक की बात है।.....उपयोग वहाँ होना चाहिए जहाँ से समस्याएँ खड़ी हो रही हैं। हमारी अंगुली वहाँ टिके, जहाँ दर्द है, वहाँ तो ध्यान ही नहीं जा रहा है और नए-नए दर्द पैदा किये जा रहे हैं। हम अपने ही प्रयत्नों से हिंसा और अशांति को बढ़ाते जा रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि बस एक स्थान पर समाज का ध्यान केन्द्रित हो जाए कि हम ऐसा कोई काम नहीं करेंगे, जिससे समाज में प्रतिक्रियात्मक हिंसा को प्रोत्साहन मिले और उसका परिणाम हमें भी भगतना पडे या हमारी अगली पीढी को भगतना पडे। दृष्टिकोण में अगर इतना परिवर्तन हो जाए तो शायद हम हिंसा की समस्या को सुलझाने की दिशा में अग्रसर हो सकेंगे। मंतव्य के आलोक में आर्थिक स्वस्थता का रहस्य छुपा है। समस्या समाधान की भूमिका पर अर्थ के उपयोग की विधि का ज्ञान आवश्यक है। महाप्रज्ञ स्पष्ट शब्दों में कहते-उपयोग करना अधिकतर लोग नहीं जानते। अर्थ का उपयोग ऐसे कार्यों में करते हैं जिनसे कोई लाभ नहीं होता। फिजूल का खर्च करके, अपने अर्थ का प्रदर्शन करके वे अपने अहं की तुष्टि भले ही कर लें, किंतु उस खर्च का, उस व्यय का कोई लाभ नहीं होता, न वैयक्तिक दृष्टि से न सामाजिक दृष्टि से। इच्छा के आधार पर तीन प्रकार के वर्गीकरण बनते हैं-महेच्छा, अल्पेच्छा और अनिच्छा। पहला वर्ग उन लोगों का है, जिनमें इच्छा का कोई संयम नहीं है। दूसरा वर्ग श्रावक का है, जिनमें इच्छा का परिमाण होता है। तीसरा वर्ग मुनि का है जिनमें इच्छा का पूर्ण संयम होता है। जहाँ महेच्छा है, वहाँ महान् परिग्रह होगा। जहाँ अल्पेच्छा है वहाँ अल्प परिग्रह होगा और जहाँ अनिच्छा है वहाँ अपरिग्रह है। नैतिकता की पहली शर्त है-इच्छा परिमाण और उसकी अन्तिम बात है भोगोपभोग की सीमा। जब इच्छा परिमित होती है और भोगोपभोग सीमित होता है, तब प्रामाणिकता, अर्थार्जन के साधनों में शुद्धि आदि अपने आप फलित होने लगते हैं। जहाँ भोग की लालसा है, वहाँ क्रूरता बढ़ेगी तो अर्थार्जन के साधन शद्ध नहीं रहेंगे। अर्थाजन के साधन अशद्ध होंगे तो अप्रामाणिकता बढेगी। यह सारा चक्र है। इच्छा-परिमाण और भोगोपभोग की सीमा-इन दोनों के बीच में है। अगर ये दो होते हैं तो नैतिकता फलित होने लगती है। भोगोपभोग की समस्या ने आर्थिक समस्या को जटिल बनाया है। गरीबी और भूखमरी की समस्या इतनी जटिल नहीं है जितनी जटिल है भोगोपभोग की समस्या।। उपभोक्तावादी मनोवृति दूसरे के स्वत्व को हड़पने में कोई संकोच नहीं करती। सीमित वस्तु और असीमित उपयोग ने संतुलन को बिगाड़ दिया और उसीका दुष्परिणाम है आज की छीनाझपटी। ऐसे वातावरण में हिंसा को खुलकर खेलने का मौका मिलता है।12 भोगोपभोग की आकांक्षा ने मानव को क्रूर बनाया है। इसके आर्थिक पक्ष को देखें तो अर्थोष्मा और क्रूरता दोनों जुड़े हुए हैं। क्रूरता और शक्ति को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। दोनों साथ-साथ चलते हैं। लोगों अहिंसक समाज : एक प्रारूप / 233
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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