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________________ . उद्देश्य की दिशा में सहायता करने वाला शिक्षक। . उद्देश्य की पूर्ति में सहायक वातावरण। . उद्देश्य की पूर्ति में प्रेरक बनने वाले अभिभावक। शिक्षा की यह चतुष्पदी अहिंसक वातावरण बनाने में सक्षम है। इसके सम्यक् अनुशीलन से शिक्षा का वांछित ध्येय साकार बन सकता है। मनीषियों के विचारों में भले ही वैविध्य है पर उनका ध्येय समान रूप से शिक्षा द्वारा विद्यार्थी को परिपूर्ण बनाना है। अखंड व्यक्तित्व निर्माण की आकांक्षा से गांधी ने शिक्षा का प्रारूप बनाया था। उनकी दृष्टि में मनुष्य न तो कोरी बुद्धि है, न स्थूल शरीर है और न केवल हृदय या आत्मा ही है। संपूर्ण मनष्य के निर्माण के लिए तीनों के उचित और एकरस मेल की जरूरत है और यही शिक्षा की सच्ची व्यवस्था है। उनका स्पष्ट अभिप्राय था कि जब तक मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी परिमाण में आत्मा की जाग्रती न होती रहे, तब तक केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ विशेष लाभ नहीं होगा। आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा आशय हृदय की तालीम से है। इसलिए मस्तिष्क का ठीक और चतुर्मुखी विकास तभी हो सकता है, जब वह बच्चे की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियों की तालीम के साथ-साथ होता हो। ये सब एक और अविभाज्य हैं। शिक्षा के अभिनव प्रारूप के जरिये राष्ट्रीय पैमाने पर क्रांति घटित करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने सार्थक प्रयत्न कियें। अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना करते समय (15-11-1920) गांधी ने कहा-इस महाविद्यालय की प्रतिष्ठा करने का उद्देश्य केवल विद्यादान नहीं है, बल्कि आजीविका की प्राप्ति के लिए साधन कर देना भी है। यों मैंने शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया कि तुम्हें बता सकूँ कि यह कार्य महान्-से-महान् है। यहाँ इस कार्य के लिए (अध्यापकों का) जो संगम हुआ है, वह तीर्थ-रूप है। यहाँ चरित्रवान् पुरुष जमा हुए हैं। सुन्दर सिन्धी, सुन्दर महाराष्ट्री, सुन्दर गुजराती लोगों का संगम हुआ है। विद्या का नहीं, चरित्र का चमत्कार बताकर आप स्वातंत्र्य दिलायेंगे। स्वराज्य का सुन्दर वृक्ष चरित्र का पानी पिलाने से, शुद्ध देवी बल से फूले-फलेगा। विद्यार्थी तो परिस्थिति के दर्पण हैं। उनमें दंभ नहीं है, द्वेष नहीं, ढोग नहीं। जैसे हैं, वैसे ही अपने को दिखाते हैं। यदि उनमें पुरुषार्थ नहीं, सत्य नहीं, ब्रह्मचर्य नहीं, अहिंसा नहीं, तो दोष उनका नहीं, माँ-बापों का, अध्यापकों का है। आचार्य का है, राजा का है। इस विद्यालय की प्रतिष्ठा हम विद्या की दष्टि से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि से कर रहे हैं। विद्यार्थियों को बलवान् चरित्रवान् बनाने के लिए मेरा सारा प्रयत्न है। विद्यार्थियों से मेरा अनुरोध है कि मुझ पर तुम्हारी जितनी श्रद्धा है, उतनी ही श्रद्धा अपने अध्यापकों पर रखना। परन्तु यदि तुम अपने अध्यापकों को बलहीन पाओ तो उस समय तुम प्रह्लाद जैसी अग्नि से उस आचार्य को और उन अध्यापकों को भस्म कर डालना और अपना काम आगे बढ़ाना। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष उन्होंने कहा-दूसरी विद्या मिले या न मिले, परन्तु इस वर्तमान विद्या को छोड़ो। यदि वर्तमान स्थिति के लिए सच्चा वैराग्य मेरे जैसा वैराग्य पैदा हुआ हो, यह लगता है कि स्वतन्त्रता के लिए कुछ भी विचार किये बिना इसका त्याग करना ही धर्म है। विद्यालय में बड़ी-से-बड़ी शिक्षा मिलती हो, सुविधाएं मिलती हों तो उनका भी भारत के लाभ के लिए बलिदान करने की जरूरत है। स्पष्ट ध्वनित होता है कि उनकी दृष्टि में शिक्षा का दोहरा दायित्व था। एक तो विद्यार्थियों में नैतिक-चारित्रिक गुणों का बीज वपन करना दूसरा राष्ट्रीय अहिंसा की मूल इकाई : व्यक्ति / 205
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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