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________________ से शाकाहार की ओर बढ़ा है और शिकार के स्थान पर कृषि पर निर्भर हुआ है। वस्तुतः प्रारम्भिक कबीलाई संगठनों से लेकर आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तक मानव-सभ्यता का जो विकास हुआ है, उसके पीछे मानव की अहिंसक प्रवृत्ति ही सक्रिय रही है। व्यक्ति के भीतर अहिंसात्मक भावों की अभिव्यक्ति के निन्न प्रकार हैं. प्रत्येक मनुष्य में अच्छाई (सद्गुण) तथा बुराई (दुर्गुण) दोनों ही पायी जाती हैं। मनुष्य अपनी प्रकृति से मूलतः नैतिक एवं अहिंसक प्राणी है। मानव जीवन में इन दोनों गुणों का बहुत अधिक महत्त्व है। प्रथम गुण के कारण मानव सदैव ही दुर्गुण से सद्गुण को श्रेष्ठ मानता है। द्वितीय गुण के कारण मानव ने संघर्ष एवं हिंसा की तुलना में सहयोग एवं अहिंसा को पसंद किया है जिससे मानव सभ्यता का विकास संभव हआ। अपनी नैतिक एवं अहिंसक प्रकृति के कारण ही मानव एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य एक विकासशील प्राणी है और इस दृष्टि से अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। अर्थात् मानव स्वयं के प्रयत्नों द्वारा अपनी बुराइयों पर विजय प्राप्त कर सकता है और अच्छाई की ओर विकास कर सकता है। सभी मानव ईश्वर की सन्तान है और उनकी आत्मा में ईश्वर का अंश विद्यमान है। मानव जीवन की दृष्टि से इस आध्यात्मिक सत्य के कारण ही मानव नैतिक, अहिंसक व विकासशील प्राणी बनता है। यदि व्यक्ति के भीतर दिव्यता का गुण विद्यमान न होता तो उसके विकास और परिवर्तन का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। जैन दर्शन अथवा आचार्य महाप्रज्ञ के विचार से प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई और बुराई दोनों के बीज विद्यमान हैं। जैसे निमित्त मिलते हैं वैसे ही अच्छाई या बुराई प्रकट हो जाती है। अहिंसा व्यक्ति की भावनाओं से प्रस्फुटित होती है विवशता से नहीं। गांधी ने स्पष्ट कहा 'अहिंसा कोई ऐसा गुण तो है नहीं जो गढ़ा जा सकता हो। यह तो एक अंदर से बढ़ने वाली चीज़ है. जिसका आधार आत्यन्तिक व्यक्तिगत प्रयत्न है।' उन्होंने इसका अपने जीवन में अनभ व किया और स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि मैंने तो अहिंसा के विज्ञान का एक नम्र शोधन किया है। व्यक्ति अहिंसा की शक्तियों का अमर्याद रूप में विकास कर सकता है। आप अपने भीतर जितना अधिक अहिंसा का विकास करेंगे उतनी ही ज्यादा उसकी छूत फैलेगी........धीरे-धीरे संपूर्ण जगत् में फैल सकती है। अहिंसा की असीम शक्ति का उन्होंने अनुभव किया और अविचल विश्वास को प्रकट किया। ____ 'कठोरतम धातु काफी आंच ले नरम हो जाती है, इसी प्रकार कठोरतम हृदय भी अहिंसा की पर्याप्त आंच लगने से पिघल जाना चाहिए। अहिंसा कितनी आंच पैदा कर सकती है इसकी कोई सीमा नहीं। अपनी आधी शताब्दी के अनुभव में मेरे सामने एक भी परिस्थिति ऐसी नहीं आयी जब मुझे यह कहना पड़ा हो कि मैं असहाय हूं और मेरी अहिंसा निरुपाय हो गई।” आचार्य महाप्रज्ञ के वैयक्तिक अहिंसा संबंधी विचार गांधी के विचारों को संपोषण देने वाले हैं। वे वर्तमान व्यापी हिंसा के तांडव को स्पष्ट शब्दों में कहते-हिंसा की समस्या द्रोपदी के चीर की भांति बेछोर बनती जा रही है। इसका समाधान पाने हेतु व्यक्ति-व्यक्ति के भीतर अहिंसा की चेतना का जागरण जरूरी है। इस संदर्भ में अनेक दिशाओं से प्रयत्न होना जरूरी है-धार्मिक और आध्यात्मिक मंच से, मनोवैज्ञानिक 190 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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