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________________ माता से मिले अध्यात्म के उन्नत संस्कार बालक 'नथमल' में सहस्रगुणित होकर निखरे। जिसका विराट रूप धर्मचक्रवर्ती आचार्य महाप्रज्ञ की महनीय प्रज्ञा में देखा गया है। __ छोटे से अविकसित गाँव में जन्मा बालक विपुल क्षमताओं के विकास का स्वामी बनेगा ऐसा कौन जानता था उस समय, पर यह सच्चाई है। आचार्य महाप्रज्ञ ने वैश्विक समस्याओं का अध्यात्म की गहराइयों में उपयुक्त समाधान किया। आदिभूत अध्यात्म का बीज वपन माँ बालू ने पुत्र के बाल मानस पर किया था। विभिन्न रूपों में माता की महनीय भूमिका महाप्रज्ञ निर्माण में मुखर हुई। अनुपम भगिनी मालू शासनश्री साध्वी मालूजी को आचार्य महाप्रज्ञ की बड़ी बहिन होने का सौभाग्य मिला। यद्यपि दीक्षा पर्याय में वो छोटी थीं, पर मुनि नथमल ने सदैव उनको आदरास्पद दृष्टि से देखा। ‘साध्वी मालूजी का जीवन ऋजुता, तपस्या, जप, ध्यान और आत्मलीनता की ज्योति से उज्ज्वल और प्रकाशमान है। तुम्हारी संयम निष्ठा अध्यात्म-निष्ठा अनुकरणीय है। दिन-रात स्वाध्याय, ध्यान में लीन रहना बहुत बड़ी साधना है। भीतर की ज्योति हो तभी यह संभव है।' महाप्रज्ञ के इस कथन में यथार्थ का निदर्शन है। साध्वी मालूजी का आध्यात्मिक व्यक्तित्व निखरा हुआ था। मौन उनका स्वाभाविक व्रत था और कषाय सहज उपशान्त। उनका जीवन युगलियों की सहज स्मृति कराने वाला था। महाप्रज्ञ की भाषा में वो 'अनुपम' साध्वी थी। उनके नैसर्गिक गुणों ने स्वयं महाप्रज्ञ को प्रभावित और प्रेरित किया। इसका प्रमाण ये पंक्ति है-'उनकी करूणा मेरे भीतर सजीव है। उनकी मृदुता भी प्राणवान है।'7 आचार्य महाप्रज्ञ के विकास की मूक प्रेरिका साध्वी मालूजी के प्रति उनका अहोभाव कितना प्राणवान रहा इसके संदर्भ का यह कथन ही पर्याप्त है-'तुम मातुश्री बालू जी के स्थान पर रही हो। तुम्हारी निर्मल भावना और जप साधना ने मुझे बल दिया है।' आत्मतोष की साक्षीभूत इन पंक्तियों का विराट् संदर्भ प्रयोक्ता ही जाने। पर, यह सच्चाई है कि महाप्रज्ञ ने अपनी ज्येष्ठा भगिनी साध्वी मालूजी की अनेक विशेषताओं को स्थायी प्रेरणा के रूप में संजोया और उसे जीया है। राग से विराग की ओर आत्मा में अनन्त शक्ति की विद्यमानता अध्यात्म और विज्ञान द्वारा समान रूप से स्वीकृत है। मौलिक प्रश्न है उसके उद्घाटन का? सकारात्मक भाषा में चेतना के भीतर छिपी संभावनाओं को आकार दिया जा सकता है, पर उन्हें कुरेदन क्षमता का योग मिले तब। यह योग ही दुर्लभ है। बालक 'नथमल' की भव्यात्मा को सौभाग्य से अपनी क्षमताओं को जगाने का अवसर मिला। जीवन का एक दशक पूर्ण होते ही सुयोग बना कि मुनि छबीलजी एवं मुनि मूलचन्द जी ने बालक नथमल, प्यार का नाम 'नत्थू' को मुनि बनने की हल्की-सी प्रेरणा दी। प्रेरणा पाकर बालक के भीतर छिपे संयम के संस्कार आकार लेने के लिए उत्फुल्ल हो उठे। उस समय की मनःस्थिति का चित्रण करते हुए महाप्रज्ञ ने लिखा- मुनि द्वय से मुनि बनने की प्रेरणा पाकर मेरा अन्तःकरण झंकृत-सा हो गया, जैसे कोई बीज अंकुरित होना चाहता हो उस पर पानी की फुहारें गिर जाए। जैसे मेरा अन्तर्मन मुनि बनना चाहता हो और उसको प्रेरणा की ही प्रतीक्षा हो।' इस कथन में चैतसिक दशा का स्पष्ट प्रतिबिम्ब है कि उसकी सतह कितनी स्वच्छ-निर्मल थी। सहज रूप में मिली प्रेरणा से राग के संस्कारों का विराग में विलयन हो गया। बचपन से ही प्रकृतिभद्र सरल स्वभावी, छल प्रपञ्च से मुक्त बालक 'नत्थू' आत्मा का नाथ बनने के लिए समुद्यत हो गया। 160 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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