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________________ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। विकास के लिए शान्ति एक अनिवार्य शर्त है। अहिंसा नीति का दूसरा सूत्र है-सापेक्षता। सापेक्षता के द्वारा विरोधी विचारों और धर्मों के व्यक्तियों को निकट लाया जा सकता है। जन-जीवन को आतंक से मुक्त बनाया जा सकता है। ... अहिंसा विकास हेतु आचार्य महाप्रज्ञ कोरे कल्पनावादी नहीं, उनकी सोच यथार्थ परक थी। हिंसा से निपटने एवं अहिंसा के विकास के लिए दो प्रकार की नीतियों का निपात किया-अल्पकालिक नीति और दीर्घकालिक नीति। अल्पकालिक नीति यह है कि सभी सम्प्रदाय के प्रमुख लोगों से बात करें, शांति का वातावरण बनाएँ। परस्पर वार्ता एवं समझौता करवाएं। दीर्घकालिक नीति यह है कि जो हिंसा का भाव है, उसे समाप्त करना होगा। अहिंसा का विकास श्रमसाध्य कार्य है। उसके लिए प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है। यदि सरकार अहिंसा के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था करे तो अहिंसा के विकास की संभावना की जा सकती है। हिंसा की समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है।....अहिंसा प्रशिक्षण की जो विधि विकसित की है वह आध्यात्मिक भी है और वैज्ञानिक भी। अहिंसा प्रशिक्षण के अनेक शिविरों में इस विधि का प्रयोग किया जा चुका है और उसके अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं।221 मंथन पूर्वक प्रतिपादित ये नीतियां हिंसा के बढ़ते दावानल को नियंत्रित करने एवं अहिंसात्मक चेतना के विकास में अहं भूमिका रखती है। अपेक्षा है विराट स्तर पर इन्हें अपनाने की। संक्षेप में अहिंसा के साथ नीति नियामकता की मीमांसा आचार्य महाप्रज्ञ की मौलिक चैतसिक स्फरणा का द्योतक है। आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा को विराट् संदर्भो में सभी कोणों से प्रस्तुति देकर अहिंसा के विकास की नूतन संभावनाओं को उदघाटित किया है। आचार्य महाप्रज्ञ के कालजयी कर्तृत्व से अहिंसा के स्वर्णिम पृष्ठों की संयोजना का संज्ञान तब तक अधूरा है, जब तक उनके द्वारा जीवन के अंतिम दशक में निष्पादित अहिंसानिष्ठ व्यापक कार्यों का जिक्र न किया जाए। इस तथ्य के आलोक में अहिंसा यात्रा के मौलिक संदर्भो की संक्षिप्त चर्चा समीचीन होगी। सक्रिय उपक्रमः अहिंसा यात्रा अध्यात्म की दिव्य संस्कृति के बदौलत भारत-भू को जगत् गुरू बनने का सौभाग्य मिला। उस धरा पर हिंसा के बादल मंडराने लगे। गांधी के गुजरात में साम्प्रदायिक दंगों का भूचाल मच गया। उस वक्त गुरू वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि के आदर्श को भूलकर समस्यागत राष्ट्र के संत-महंत अपनेअपने खोहों, कुटीरों, आश्रमों, भवनों में सुस्ता रहे थे। संप्रेक्षापूर्वक राष्ट्रसंत आचार्य महाप्रज्ञ उस समय अपने पूरे संघ की शक्ति के साथ सर्वात्मना अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा में जुट गये। विश्वभर में हो रहे आतंककारी हमले, साम्प्रदायिक झगड़े और आपसी मतभेदों के बीच आचार्य महाप्रज्ञ ने 5 दिसम्बर 2001 को राजस्थान के सुजानगढ़ से अहिंसा यात्रा का सूत्रपात किया। अहिंसा यात्रा गुजरात से महाराष्ट्र, दमन, मध्यप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, पंजाब व चंडीगढ़ के कुछ इलाकों में होते हुए 4 जनवरी 2009 को उसी स्थान पर आकर समाप्त हुई, जहाँ से यह शुरू हुई थी। अहिंसा यात्रा ने देशभर के 87 जिलों के 2400 गांवों-कस्बो में जाकर लोगों को अहिंसा का संदेश दिया। जिसकी एक झलक अहिंसा यात्रा ‘नक्शे' में देखी जा सकती है। गांवों-कस्बो की नामांकन सूची भी जिज्ञासु 'अहिंसाः यात्रा पथ' में देख सकते हैं। 104 / अधर में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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