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________________ (२) कषाय की मन्दता का परिणाम है। अतः कषाय की मन्दता रूप पुण्य तत्त्व आत्म-विशुद्धि का निमित्त होने से उपादेय है। कषाय की मन्दता और मन्द कषाय में अन्तर है। जहाँ कषाय की मन्दता पुण्य रूप है वहाँ मन्द कषाय भी पाप रूप है। कषाय की मन्दता से शुभपरिणाम होते हैं और उससे पुण्य तत्त्व में अभिवृद्धि होती है, जबकि मन्द कषाय से भी अशुभ परिणाम ही उत्पन्न होते हैं और उनसे पाप तत्त्व की अभिवृद्धि होती है। इस प्रकार कषाय की मन्दता पुण्य का हेतु है, जबकि मन्द कषाय पाप के हेतु हैं। कषाय की मन्दता से हुई पुण्य की अभिवृद्धि आत्म-विशुद्धि का हेतु होने से मोक्ष की उपलब्धि में साधक है। अतः पुण्य मोक्ष का साधक होने से उपादेय है, जबकि पाप मोक्ष में बाधक होने से हेय (५) पुण्य पाप का प्रक्षालन करता है, अतः पुण्य सोने की बेड़ी न होकर सोने का आभूषण है। बेड़ी बंधन में डालती है, आभूषण नहीं। बेड़ी बाध्यतावश धारण करनी पड़ती है, जबकि आभूषण स्वेच्छा से धारण किया जाता है। अतः बेड़ी से हम इच्छानुसार मुक्त नहीं हो सकते हैं, किन्तु आभूषण से इच्छानुसार मुक्त हो सकते हैं। अत: आभूषण रूप पुण्य के क्षय का कोई उपाय किसी साधना में निर्दिष्ट नहीं है। दया, दान, करुणा, वात्सल्य, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों से बंध नहीं होता है। बंध तो तभी होता है, जब कर्ता में फलाकांक्षा, निदान कर्तृत्व या भोक्तृत्व रूप कषाय परिणाम हो। संक्षेप में शभयोग के साथ रहा हुआ कषाय भाव ही उन कर्मों के स्थिति बंध का कारण होता है। शुभ योग कर्मबंध का कारण नहीं होता। पुण्य स्वभाव है, स्वभाव का नाश नहीं होता है। पुनः जो स्वभाव होता है, वही धर्म है। पुण्य स्वभाव है अतः वह धर्म है। पुनः स्वभाव का त्याग संभव नहीं है, अतः पुण्य त्याज्य नहीं है। यही कारण है कि तीर्थंकर केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भी लोककल्याण या प्राणियों के प्रति अनुकम्पा की दृष्टि से ही तीर्थ प्रवर्तन, धर्मोपदेश (६) पुण्य-पाप तत्त्व [55]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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