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पुण्य का पालन : पाप का प्रक्षालन * आत्मा जिससे पवित्र हो वह पुण्य है। * आत्मा क्षायोपशमिक, क्षायिक व औपशमिक भाव से पवित्र होती है। * क्षायोपशमिक, क्षायिक व औपशमिक भाव मोक्ष के हेतु हैं।
इन भावों से कषाय क्षीण होता है। कषाय क्षीण (क्षय) होने से सत्ता में स्थित पाप कर्मों के स्थिति-बंध एवं अनुभाग-बंध का अपकर्षण (क्षय) होता है। अर्थात् पाप कर्मों की निर्जरा होती है। कषाय की क्षीणता से आध्यात्मिक (आंतरिक) एवं भौतिक (बाह्य) विकास होता है। आध्यात्मिक विकास से घाती और अघाती कर्मों की समस्त पाप प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं जिससे आत्मा की शुद्धि में वृद्धि होती है। भौतिक विकास से शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदि की उपलब्धि होती है अर्थात् पुण्य का उपार्जन होता है। शुभ (पुण्य) से अपने को बचाना पाप है।३(अ)
पुण्य के उपार्जन से पाप के आस्रव का निरोध होता है। * पापास्रव का निरोध संवर है। * पाप और पुण्य कर्मों का फल उनके अनुभाग के रूप में मिलता है। अतः
पाप-पुण्य का आधार उनका अनुभाग है। स्थिति बंध व प्रदेश बंध में फल देने की शक्ति नहीं है। स्थिति बंध और प्रदेश बंध की न्यूनाधिकता से कर्मों का फल न्यूनाधिक नहीं
होता है। * पुण्य के अनुभाग का सर्जन कषाय के क्षय से कमी से होता है, कषाय के
उदय से नहीं होता है। कषाय का पूर्ण क्षय क्षपक श्रेणी में होता है अत: वहीं बध्यमान पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग उत्कृष्ट होने पर अन्तर्मुहूर्त पश्चात् केवल ज्ञान हो जाता है। पुण्य का अनुभाग उत्कृष्ट होने पर पुण्य परिपूर्ण हो जाता है फिर पुण्य का उपार्जन शेष नहीं रहता है। अत: वीतराग के साता वेदनीय को छोड़कर अन्य किसी पुण्य कर्म का उपार्जन नहीं होता है।
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जैनतत्त्व सार