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की पूर्ति के लिए इन सब पापों को करते हैं। इन पापों के फलस्वरूप दुःख मिलेगा तो फिर देखा जायेगा, उसे भोग लेंगे, अभी तो सुख भोग लें। इस प्रकार हम क्षणिक विषय सुख की दासता में इतने आबद्ध हैं कि अपने ज्ञान का अनादर कर विषय - सुख सामग्री की प्राप्ति के लिए इन दुष्कर्मों को, दोषों को, पापों को अपनाते हैं। साथ ही साथ दुःख भी पाते रहते हैं । इस प्रकार विषय-सुख के साथ दुःख भोगते हुये अनन्त काल बीत गया, परन्तु न तो विषय सुख की पूर्ति हुई और न दुःख से मुक्ति मिली। यदि हम आगे भी विषय - सुख के आधीन हो ऐसा ही करते रहेंगे तो आगे भी हमारी यही स्थिति रहेगी। हमें जो सुख मिलेगा वह तो क्षणिक होने से नहीं रहेगा और हम दुःख पाते ही रहेंगे। मानव-जीवन दुःख रहित होने के लिए मिला है, यही इस जीवन की विशेषता है । अतः यदि हमने दुःख रहित सुखमय जीवन नहीं जीया तो समझना चाहिये कि हमारा जीवन व्यर्थ ही गया, कारण सुख-दुःख युक्त जीवन तो पशु भी जीता है फिर हमारे में पशु के जीवन से क्या विशेषता आई। अतः हम विषय - सुखों एवं इनसे जुड़े हुए दुष्कर्मों पापों का त्याग कर अक्षय, अव्याबाध, अनन्त सुखमय जीवन जीयें, इसी में हमारे जीवन की सार्थकता तथा सफलता है। मानव विषय-सुख का त्याग कर जिस क्षण चाहे उसी क्षण अव्याबाध, अनंत सुख का आस्वादन कर सकता है। त्याग के लिए वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, स्थान, समय, अभ्यास, श्रम आदि किसी भी आवश्यकता या अपेक्षा नहीं है, अतः मानव त्याग करने में समर्थ और स्वाधीन है। फिर भी त्याग को न अपनाकर दुःखी रहे, यह कितने आश्चर्य की, कितनी खिन्नता की बात है ; कितनी करुणाजनक और अशेभनीय स्थिति है ।
वस्तुतः त्याग ही जीवन है, विषय भोग ही मृत्यु है। जितना-जितना त्याग बढ़ता जायेगा उतना-उतना पाप घटता जायेगा । त्याग का बढ़ना और पाप का घटना युगपत् है। अतः पाप के त्याग से ही शांति व मुक्ति के शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है । पाप-पुण्य का आधार : संक्लेश-विशुद्धि
पुण्य-पाप तत्त्व का संबंध संक्लेश-विशुद्धि भावों से है । इसी विषय पर यहाँ विचार किया जा रहा है।
शुभः पुण्यस्य।। अशुभः पापस्य ।। तत्त्वार्थसूत्र ६.३.४ अर्थ- शुभ योग पुण्य का आस्रव है और अशुभ योग पाप का आस्रव है। इन सूत्रों की टीका करते हुए पं० श्री सुखलाल जी संघवी लिखते हैं- काययोग आदि तीनों योग शुभ भी हैं
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जैतत्त्व सार