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रयणतयरूवे अजाकम्मे दयाइसद्धम्मे।
इच्चेवमाइगो जो वट्ठइ सो होइ सुहभावो।। - रयणसार ६५ रत्नत्रय, आर्य (शुभ-श्रेष्ठ) कर्म, दया आदि धर्म इत्यादि भावों से युक्त होकर जो वर्तन करता है वह शुभ भाव होता है। ___ 'पुण' शुभे इति वचनात् पुणति शुभीकरोति, पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम्।
- अभिधानराजेन्द्र कोष, भाग ५ पृ. ९९१ अर्थात् पुण्य शुभ है, जो आत्मा को शुभ करता है, पुनीत व पवित्र करता है वह पुण्य है।
आशय यह है कि जिससे आत्मा पवित्र होती है वह पुण्य है। आत्मा शुभयोग की प्रवृत्ति और अशुभयोग की निवृत्ति इन दोनों से पवित्र होती है। दया, दान, करुणा, वात्सल्य, वैयावृत्त्य, विनम्रता, मृदुता मैत्री, उपकार, सेवा आदि सभी सद्प्रवृत्तियों से आत्मा पवित्र होती है एवं संयम, संवर, तप, व्रत प्रत्याख्यान आदि त्याग रूप निवृत्ति से भी आत्मा पवित्र होती है। अत: पुण्य का उपार्जन प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से होता है।
सद्प्रवृत्तियाँ मन, वचन, तन तथा सद्व्यवहार से होती है जैसा कि कहा है
अन्नपुण्णे, पाणपुण्णे, लयणपुण्णे, सयणपुण्णे, वत्थपुण्णे, मणपुण्णे, वयणपुण्णे, कायपुण्णे, नमोक्कारपुण्णे। - ठाणांग सूत्र, नवम ठाणा
अर्थात् अन्न पुण्य, पान पुण्य, लयण पुण्य, शयन पुण्य, वस्त्र पुण्य, मन पुण्य, वचन पुण्य, काय पुण्य, नमस्कार पुण्य ये नव प्रकार के पुण्य हैं।
इन नौ प्रकार के पुण्यों में प्रथम पांच पुण्य वस्तुओं के दान से सम्बन्धित हैं। प्राणियों एवं मानव की मूलभूत आवश्यकताएं पाँच हैं- भूख, प्यास, निवास, विश्राम और वस्त्र । इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से प्राणी दुःखी रहते हैं। इन दुःखों को दूर करने के लिए भूखे को भोजन खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना, रहने को स्थान देना, विश्राम में सहायता करना, पहनने को वस्त्र देना ये पांच पुण्य वस्तुओं से संबंधित हैं। मन से दूसरों का भला विचारना व सच्चिंतन करना मन पुण्य है। वचन से हितकारी वचन बोलना व सत् चर्चा करना वचन पुण्य है। काय
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जैनतत्त्व सार