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इसमें विज्ञान की दृष्टि में पुद्गल द्रव्य एवं तत्त्व, स्कन्ध - देश-प्रदेश, परमाणु, स्कन्ध के भेद, अतिस्थूल, स्थूल, स्थूल सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म एवं अति सूक्ष्म ये छह भेद बताए हैं।
परमाणु का वैज्ञानिक रूप, पुद्गल शक्ति, पुद्गल बंध, द्रव्य, गुण, पर्याय, पुद्गल के गुण-वर्णन, गंध, रस, स्पर्श ।
पुद्गल की विशेषताएँ- गतिशीलता, अप्रतिघातित्व, परिणामी - नित्यत्व, सघनता - सूक्ष्मता की विज्ञान से पुष्टि की है
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पुद्गल की पर्यायें (अवस्थाएँ ) - जैन दर्शन की वैज्ञानिकता, शब्द पर्याय, ध्वनि के विविध प्रयोग, चिकित्सा में उपयोग, छाया चित्रांकन में उपयोग, कपड़े धोने में उपयोग, इलैक्ट्रोनिक संगीत, रेत का गीत, मिश्र शब्द, भाषा पुद्गल, शब्द का वर्गीकरण, शब्द की गति, भाषा के अभिन्न और भिन्न रूप, तम और छाया, प्रभा-उद्योत, आतप-ताप इन समस्त विषयों के विवेचन में वैज्ञानिक सिद्धान्त, प्रयोग, उदाहरण, प्रमाण से पुष्टि की गई है ।
जीव- अजीव द्रव्य और जीव- अजीव तत्त्व में अन्तर
जीव एवं अजीव द्रव्य का प्रतिपादन लोक में इनकी अवस्थिति की दृष्टि से किया गया है। इसमें यह भी प्रतिपादन किया गया है कि द्रव्य में गुण होता है एवं उसकी पर्याय होती है । तत्त्व शब्द भाववाचक है । इसमें जीव - अजीव तत्त्व का विवेचन बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से किया गया है।
द्रव्य वस्तु के बाह्याकार प्रकार - आकृति - प्रकृति का वर्णन करता है, भाववाचक तत्त्व-शब्द का संबंध जीव से है। जीवत्व, चेतनत्व (चिन्मयता) और अजीवत्व (जड़ता अचेतनता) की वास्तविकता का भावात्मक अनुभवात्मक ज्ञान भेद विज्ञान ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन के अभाव में कोई कितना भी संसार के विषय में ज्ञानार्जन करे वह मिथ्याज्ञान अज्ञान ही होता है । सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् संसार के विषय में कोई कुछ भी जाने, कुछ भी मान्यता रखे, वह उसका उपयोग विकार दूर करने में ही करेगा । अतः वह सम्यक्ज्ञान में परिणत होगा । मिथ्यादृष्टि जो भी पढ़ेगा उसका उपयोग - भोग सामग्री संग्रहित करने, भोग भोगने में करेगा । अतः महत्त्व उस ज्ञान का है जो संसार से शरीर से संबंध विच्छेद करने, विरति उत्पन्न करने में सहायक हो । अतः साधक के लिए जिस साधना से वह अंतर्मुखी हो स्वसंवेदन के रूप में जड़ से चेतन की पृथक्ता का स्पष्ट अनुभव करे, चैतन्य के
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जैतत्त्व सा
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