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________________ स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं। उनके बारे में हम केवल पढ़ते एवं सुनते हैं। उनका कभी हमने अनुभव नहीं किया। मरने पर ही स्वर्ग के सुख का अनुभव हो सकता है । इसलिए स्वर्ग का सुख हमें आकर्षित नहीं करता है । उमास्वाति कहते हैं मोक्ष का सुख तो और भी परोक्ष है, उस पर हम कैसे विश्वास करें ? प्रशमसुख ऐसा सुख है जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है, उसे अनुभव करने में किसी प्रकार की पराधीनता नहीं है एवं उसमें धन आदि का व्यय भी अपेक्षित नहीं है । वह प्राप्त होने के पश्चात् इन्द्रिय सुख की भाँति क्षीण नहीं होता है । इसलिए यह सुख सबको अभीष्ट हो सकता है। प्रशमसुख का अनुभव व्यक्ति को मोक्ष के स्थायी अव्याबाध सुख की ओर ले जा सकता है, क्योंकि प्रशमसुख रागादि विकारों का आंशिक शमन होने पर प्राप्त होता है तथा मोक्ष का सुख इन विकारों का पूर्ण क्षय होने पर प्राप्त होता है। जो विकारों के आंशिक शमन से आनन्दानुभूति करता है उसे पूर्ण आनन्दानुभूति की उत्कण्ठा जागृत हो सकती है एवं वह उस मार्ग पर आगे बढ़कर मोक्ष प्राप्ति के लिए उद्यत हो सकता है। प्रशमसुख का अनुभव होने पर भी प्रज्ञा का जागरण आवश्यक है। प्रज्ञा जागृत न हो तो विकारों का उत्पात कभी भी दिग्भ्रान्त कर सकता है। कोई साधक प्रज्ञा सुप्त होने पर प्रशमसुख पर भी अटक सकता है। इसलिए साधक सदैव जाग्रत होता है - मुणिणो सया जागरंति। जब तक अपने भीतरी विकार पूर्णत: दूर न हों तब तक मनुष्य को कहीं अटकना नहीं चाहिए। प्रशमसुख में भी आसक्ति का अटकाव नहीं होना चाहिए । जो जहाँ अटक जाता है, वह वहाँ से आगे नहीं बढ़ पाता । मोक्ष का पथ इसलिए सजगता का पथ है । जो प्रतिपल सजग रहकर जीता है, वह आगे बढ़ता जाता है। अपने गुणों का पूर्ण विकास सजगता से ही सम्भव है। अपनी चेतना का पूर्ण विकास ही मोक्ष की प्राप्ति है। चेतना पर जब जड़ का प्रभाव समाप्त हो जाता है तब मोक्ष का अनुभव होता है। 1 मोक्ष या मुक्ति का दूसरा नाम पूर्ण स्वतन्त्रता है। मनुष्य जब इन्द्रियों के विषय सेवन के लिए लोलुप होता है अथवा कामनाओं के जाल में लिपटा रहता है, तब वह पराधीन होता है । उसे पर पदार्थों की आवश्यकता होती है, उनकी पूर्ति के लिए वह परमुखापेक्षी होता है। अज्ञान या अविद्या के कारण वह व्यक्ति स्वयं को भले ही स्वतन्त्र समझता रहे, किन्तु वास्तव में वह अपनी इच्छाओं, वासनाओं का [266] जैतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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