SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुःख निहित सुख वह है जो असत्, विनाशी, अपने से भिन्न उन वस्तुओं को मिलता है जिन पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से एवं इन्द्रियों के विषयों की भोग सामग्री से जो सुख मिलता प्रतीत होता है उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है और उस पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। माना हुआ अधिकार है जो किसी भी क्षण क्षीण व क्षय (नष्ट) हो जाता है। जिसके होते ही प्रतीत होने वाले सुख को बनाये रखना चाहने पर उनके न रहने से अभाव, चिन्ता, खिन्नता एवं शोक रूप दुःख होता है। अतः इन्द्रियजन्य, पर पदार्थ एवं सामग्री व निमित्त से मिलने वाले सुख का अन्त दुःख में होने से इस सुख में दुःख निहित है, यह सुख दुःख गर्भित है, यह सुख दुःख युक्त है। यह प्राकृतिक विधान एवं नैसर्गिक नियम है। तथा यह सुख प्रति क्षण क्षीण होता है और अन्त में इसका अन्त दुःख में होता है। अत: यह सुख-दुःख रूप ही है। दुःख रहित सुख वह है जो नश्वर, विनाशी पदार्थ शरीर, इन्द्रिय, मन एवं सांसारिक वस्तुओं से असंग एवं अतीत होने पर मिलता है, यह अलौकिक सुख है। यह सुख तीन प्रकार का है:- १. अक्षय सुख, २. अव्याबाध अखंड-पूर्ण सुख और ३. अनन्त सुख, यह एकान्त (परम) सुख कहलाता है। ये तीनों सुख (तृष्णा) के त्याग से मिलते हैं। राग के तीन रूप हैं- १. अप्राप्त वस्तु की कामना, २. प्राप्त वस्तु की ममता-मेरापन एवं ३. अपने से भिन्न-नश्वर पदार्थ के तादात्म्य 'अहंत्व'। इन तीनों प्रकार की तृष्णा के त्याग से तीनों प्रकार का सुख मिलता है। अक्षय सुख कामना के त्याग से शान्ति की अनुभूति होती है। शान्ति का रस या सुख कामना पूर्ति के सुख की तरह प्रतिक्षण क्षीण होने वाला नहीं होता है। प्रत्युत अक्षय व अक्षुण्ण होता है। जब तक पुनः कामना की उत्पत्ति नहीं होती है तब तक शान्ति का सुख बराबर बना रहता है, इसमें कमी या क्षीणता नहीं आती है और न यह नीरसता में ही बदलता है। अतः शान्ति का रस या सुख अक्षय सुख है, जिसकी उपलब्धि कामना-त्याग से ही सम्भव है। अव्याबाध सुख ममता के त्याग से स्वाधीनता की अनुभूति होती है। स्वाधीनता से स्वरस, निजरस, अविनाशीरस या सुख की अनुभूति होती है। यह सुखानुभूति अविनाशी स्वरूप की होती है। अत: यह भी अविनाशी होती है। स्वाधीनता स्वाश्रित होने से मोक्ष तत्त्व [259]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy