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दृष्टि से भी वीतराग को अनन्त उदार व अनन्त दानी कहा जा सकता है। अपने सुख के लिए कुछ भी नहीं है। उसकी यह असीम उदारता ही अनन्त दान की द्योतक है।
उदारता
उदर का भावात्मक रूप उदारता है। जिस प्रकार उदर शरीर के पोषण के लिए भोजन को ग्रहण करता है, किन्तु उपयोग अपने तक ही सीमित न रखकर सम्पूर्ण शरीर के लिए करता है, इसी प्रकार उदार मानव वस्तु का उत्पादन व संग्रह का उपयोग अपने तक ही सीमित न रखकर सारे संसार के लिए, आवश्यकता वाले व्यक्ति के लिए करता है। उदारता से प्रीति उदित होती है। प्रीति की जागृति से परस्पर में एकता स्थापित होती है जो संघर्ष का जन्म नहीं होने देती। संघर्ष का अन्त वहीं संभव है, जहाँ उदारता है। इसके विपरीत जो उदर ग्रहण किए गए भोजन को विसर्जित नहीं करता है, वह भोजन सडांध पैदा करता है और स्वयं उदर को व सारे शरीर को हानि पहुँचाता है। इसी प्रकार जो मानव अपनी उत्पादित वस्तुओं का, धन-संपत्ति का अपने लिए ही संग्रह करता है, परहित में उपयोग नहीं करता है, वह संग्रह-परिग्रह है। यह संग्रह या परिग्रह ही समस्त दोषों, दुःखों, द्वन्द्वों व संघर्षों का जनक है।
उदारता आत्मीयता जागृत करती है। आत्मीयता से संसार के सारे प्राणी आत्मवत् लगते हैं। उदार व्यक्ति को सभी प्राणी अपने ही निज-आत्मस्वरूप या परमप्रिय लगते हैं, कोई और, कोई गैर, कोई पराया नहीं लगता है। सभी के प्रति प्रीति की जागृति होती है। प्रीति दूरी, भेद व भिन्नता को खा जाती है, जिससे अपने स्वरूप से भिन्न कोई नहीं लगता है, गुरुत्व-लघुता का भेद मिट जाता है। परायापन तथा दूरी मिट जाती है। प्रीति अविनाशी तत्त्व है, अतः वह अविनाशी के प्रति ही होती है। दूरी, भेद और भिन्नता मिटने से अविनाशी से भिन्नता मिटकर एकता व अभिन्नता हो जाती है। इसी में मानव-जीवन की पूर्णता, सफलता व सार्थकता है। जहाँ उदारता है, वहाँ मानवता है। मानवतारहित मानव, मानव नहीं, दानव है।
उदारता का क्रियात्मक रूप दान है। जैनागमों में दान के अनेक उदाहरण हैं, यथा- श्रावक परदेशी राजा ने दानशाला खुलवायी, श्राविका रेवती ने भगवान महावीर को बिजौरा पाक का दान दिया, श्रेयांस कुमार ने भगवान ऋषभदेव को इक्षुरस का दान देकर तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया, चंदनबाला ने भगवान महावीर को दान देकर अपने जीवन को धन्य बनाया। सभी तीर्थंकरों ने दीक्षा लेने
मोक्ष तत्त्व
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