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________________ अतः समस्त दोषों के त्याग में अर्थात् रागरहित वीतराग अवस्था में ही समस्त दुःखों की निवृत्ति होकर एकान्त सुख की उपलब्धि होती है। समस्त दोषों का त्याग या क्षय, रागरहित होने पर ही सम्भव है। रागरहित होने का उपाय या साधन है समभाव में रहना। समभाव की साधना रागरहित होने की साधना है। अतः साधना की आधारशिला समभाव-समत्वभाव सामायिक की साधना है। समभाव की साधना जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ग्रन्थियों का छेदन व दोषों का परिहार होता जाता है, राग विगलित होता जाता है, अन्त में पूर्ण गल जाता है, फिर निर्दोष, शुद्ध अवस्था में पूर्ण यथार्थता का, यथाख्यात चारित्र का अनुभव होता है। अर्थात् जैसा हो रहा है या जैसा है, उसका वैसा ही बोध व अनुभव होता है। यही यथाख्यात चारित्र या तथागत अवस्था है। इस प्रकार समत्व की साधना (चारित्र) की पूर्णता यथाख्यात चारित्र में, तथागत अवस्था में होती है। यही वीतराग चारित्र है। फिर साधक को कुछ भी करना शेष नहीं रहता, वह कृतकृत्य हो जाता है। इस अवस्था में 'साधना' साधक के जीवन का अभिन्न अंग बन जाती है। साधना और जीवन में भिन्नता नहीं रहती, दोनों में एकता हो जाती है। साधना साधक का जीवन बन जाती है। फिर साधना करनी नहीं पड़ती है, स्वतः होती रहती है। इसका अन्त कभी नहीं होता अर्थात् अनन्त चारित्र की उपलब्धि हो जाती है। साधक का लक्ष्य अमरत्व (अविनाशी अवस्था) की प्राप्ति भी है। अमर या अविनाशी वही है जिसका अस्तित्व सदा रहे। इसे ही सत् या सत्य कहते हैं। जिसका अस्तित्व कभी रहे, कभी न रहे वह असत् है। असत्-असत्य किसी को भी पसन्द नहीं है और सत् या अमरत्व सभी को पसन्द या इष्ट है। सत् या अमरत्व की प्राप्ति की साधना चारित्र है। सत् या अमरत्व की प्राप्ति विनाशी से सम्बन्ध-विच्छेद करने से अर्थात् विनाशी के त्याग से होती है। भूमि, भवन, धन-सम्पत्ति आदि वस्तुएँ ही नहीं; देह, इन्द्रिय, मन आदि भी विनाशी या असत् हैं। इन सबसे सम्बन्ध-विच्छेद करना अर्थात् लोकातीत, इन्द्रियातीत, देहातीत, भवातीत होना ही साधना या चारित्र है, जो इनके सम्बन्ध-त्याग से, समता भाव से ही सम्भव है। इस दृष्टि से दोषों को त्याग, निर्दोष होना ही साधना या चारित्र है। त्याग का भावात्मक व क्रियात्मक रूप समत्व है। त्याग व समत्व की पूर्णता में ही अविनाशी की, अमरत्व की उपलब्धि है। यही चारित्र की पूर्णता व अनन्तता है। त्याग या चारित्र का फल ही अमरत्व की, एकान्त (दुःखरहित) व अनन्त सुख की उपलब्धि होना है। मोक्ष तत्त्व [ 245]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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