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________________ बहिर्मुखी रहता है तब तक उसकी गति व प्रवृत्ति बाहर की ओर, 'पर' की ओर रहती है। जिससे वह 'स्व' से विमुख व दूर रहता है। स्व से विमुख व दूर रहते स्वसंवेदन नहीं होता है। स्व-संवेदन के बिना 'दर्शन' नहीं होता है। जैसे-जैसे राग घटता जाता है, राग में कमी आती जाती है वैसे-वैसे बहिर्मुखीपने व पर की ओर से स्व की ओर गति होने लगती है। जैसे-जैसे बाहर से भीतर की ओर, पर से स्व की ओर गति होती जाती है; वैसे-वैसे स्वभावतः स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर संवेदनाएँ स्वतः प्रकट होने लगती हैं। 'संवेदना' चिन्मयता का ही रूप है। 'चिन्मयता' चैतन्य का प्रमुख गुण है, जिसे 'दर्शन' कहा जाता है। राग का पूर्ण नाश हो जाने पर, वीतराग हो जाने पर बहिर्मुखीपने व पर की गति का आत्यन्तिक क्षय (नाश) हो जाता है जिससे साधक सदा के लिए स्व में स्थित व स्थिर हो जाता है। स्व में स्थित व स्थिर होना ही स्वानुभूति है। स्वानुभूति ही स्व-संवेदन है, यही चिन्मयता या चेतनता है। तात्पर्य यह है कि राग रहित, वीतराग होते ही सदा के लिए पूर्ण चिन्मयता की, पूर्ण जड़ता रहित अवस्था की अनुभूति हो जाती है अर्थात् 'अनन्त दर्शन' हो जाता है। अनन्त दर्शन की उपलब्धि राग रहते नहीं हो सकती, कारण कि राग के रहते जड़ता रहती ही है। अत: वीतरागता से ही 'अनन्त दर्शन' गुण प्रकट होता है। यह गुण चैतन्य का निज स्वरूप होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तो है ही, साथ ही अनुभवगम्य व विलक्षण होने से अनिर्वचनीय भी है। इसका अनुभव ही किया जा सकता है, वर्णन नहीं किया जा सकता। अनन्त ज्ञान राग का सर्वथा अभाव होने पर, वीतराग होने पर ज्ञान के अनुरूप आचरण हो जाता है। फिर ज्ञान और आचरण में, ज्ञान और जीवन में भिन्नता, भेद व दूरी नहीं रहती। अर्थात् ज्ञान का आवरण पूर्ण हटकर ज्ञान की पूर्ण प्रभा व प्रभाव सदा के लिए प्रकट हो जाता है। यह ज्ञान राग आदि दोषों व विकृतियों से रहित होने से शुद्ध ज्ञान 'केवलज्ञान' रूप होता है तथा पूर्ण व सदा के लिए होने से अनन्त ज्ञान रूप होता है। ____ अथवा यों कहें कि जब तक विषय-सुख भोगने का राग है तब तक ही संसार से कुछ पाना व करना शेष रहता है। रागरहित होने पर न तो विषय-सुख भोगना शेष रहता है और न कुछ पाना शेष रहता है। भोगना व पाना शेष नहीं रहने मोक्ष तत्त्व [243]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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