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आना प्रचला है, प्रचला की पुनः पुनः आवृत्ति होना प्रचला-प्रचला है। सुप्त अवस्था में चलना-फिरना या अन्य कार्य करना स्त्यानगृद्धि है।
दर्शनावरण कर्म का भी मोहनीय कर्म से प्रगाढ़ सम्बन्ध है। मोहकर्म के कारण दर्शन शक्ति आच्छादित होती है। मोहकर्म मूर्छा का द्योतक है और मूर्छा की वृद्धि होती है। जितनी मूर्छा बढ़ती है, उतनी ही जड़ता बढ़ती है, जितनी जड़ता बढ़ती है उतना ही चेतन का चेतनतारूप दर्शन गुण आवरित होता है। ___ मोह के घटने एवं समता के बढ़ने से दर्शन गुण का प्रकटीकरण होता है। जैसे-जैसे दर्शन गुण का विकास या प्रकटीकरण होता जाता है, वैसे-वैसे स्व संवेदन की स्पष्टता एवं सूक्ष्म प्रकट होती जाती है, चेतना का विकास होता जाता है। दर्शन के विकास के साथ ज्ञान का विकास होता है। निर्विकल्पक चित्त की अवस्था में ही विचार या विवेक का उदय होता है। दर्शन गुण की प्रथम विशेषता संवेदनशीलता है तथा दूसरी विशेषता निर्विकल्पता है।
निर्विकल्प स्वरूप दर्शनगुण का विकास सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में तथा दर्शनमोह के क्षय में हेतु है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में हेतु होता है। दर्शनगुण के विकास में निर्विकल्पता के कारण समता की पुष्टि होती है और वह समता दर्शनावरण एवं दर्शनमोह में कमी लाती है।
दर्शनावरण कर्म बंध के जो छह कारण हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार हैसंकल्प-उत्पत्ति एवं पूर्ति को ही जीवन मानना तथा निर्विकल्पता के विरुद्ध आचरण करना दर्शना प्रत्यनीकता है। दर्शन-निह्नव का तात्पर्य है स्वतः प्राप्त निर्विकल्पता को सुरक्षित न रखना। निर्विकल्पता की अनुभूति को कालान्तर के लिए टालना दर्शन-अन्तराय है। निर्विकल्पता को अकर्मण्यता समझकर उससे द्वेष करना दर्शनद्वेष है। दर्शन-आशातना से आशय है निर्विकल्पता की उपेक्षा करना, उसके सम्पादन के लिए प्रयत्नशील न होना। दर्शन- विसंवाद का अभिप्राय है निर्विकल्पता की उपलब्धि में अपने को असमर्थ मानना, उससे निराश होना उसे उचित न मानना।
सुख-दुःख का वेदन वेदनीय कर्म का फल है। आगम की पारिभाषिक शब्दावली में सुख को साता एवं दुःख को असाता कहा गया है। साता का वेदन पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों तथा मन सौख्य, वचन सौख्य एवं काय सौख्य से होता है। इसके विपरीत असाता का वेदन पाँच इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषयों, मन
बंध तत्त्व
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