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________________ चेतन अवस्था में ही नैसर्गिक सत्य का बोध (अनुभव) होता है। जड़ता अवस्था में सत् स्वरूप का, अविनाशित्व का अनुभव नहीं होता है, प्रत्युत विनाशी अवस्था ही अविनाशी या 'सत्' प्रतीत होती है। असत् को सत् मानना एवं सत् को असत् मानना, मिथ्यात्व है। जितना चेतनता गुण बढ़ता जाता है उतना ही पदार्थ के स्थूल रूप से सूक्ष्म रूप का प्रकटीकरण अर्थात् अनुभव या संवेदन होता जाता है। अंत में सूक्ष्मतम अंश परमाणु की सच्चाई का अनुभव करने पर केवलदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, पूर्ण चैतन्य गुण प्रकट हो जाता है। इस प्रकार केवलदर्शन की उपलब्धि में दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम परंपरा कारण एवं चारित्र मोहनीय का क्षय अनन्तर कारण है। आशय यह है कि दर्शनावरणीय कर्म के छेदन में मोहनीय कर्म के त्याग का बहुत बड़ा महत्त्व है। स्व-संवेदन एवं निर्विकल्पता जीव की अजीव से दो प्रमुख विशेषताएँ हैं-ज्ञान और दर्शन। ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है। अतः जीव का मुख्य गुण दर्शन है। दर्शन का अर्थ है स्व-संवदेन। जिसमें संवेदन गुण है- वही चेतन है। दर्शन को प्राचीन ग्रंथों में कुछ विशेषणों से समझाया गया है, परिभाषित किया गया है यथा- 1.स्व-संवेदन 2. निर्विकल्प 3. निराकार 4. अविशेष-अभेद और 5. अनिर्वचनीय। इन सबका परस्पर घनिष्ठ-सम्बन्ध है। इनमें से अविशेष (सामान्य), अभेद, निराकार और निर्विकल्प समानार्थक हैं। अनिर्वचनीय इसीलिए कहा कि दर्शन को शब्दों से, वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता। ये चारों विशेषण निषेधात्मक हैं। निषेधात्मक वर्णन अभाव को प्रकट करता है। अभाव से किसी वस्तु या तथ्य के अस्तित्व व स्वरूप का बोध नहीं हो सकता। अतः इन चारों विशेषणों से दर्शन क्या है, इसका ज्ञान नहीं होता है। विधिपरक विशेषण है- स्व-संवेदन और यही चेतना का मुख्य गुण है। निर्विकल्पता और स्व-संवेदन का अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। निर्विकल्पता है- विकल्प का न उठना। विकल्प का कारण है संकल्प। जहाँ संकल्प है, वहीं विकल्प है। संकल्प का कारण राग है। जहाँ राग है, वहाँ राग की पूर्ति में बाधा पड़ने से द्वेष उत्पन्न होता है। अतः जहाँ राग है वहाँ द्वेष है। अनुकूलता को बनाये रखने की चाहना राग, प्रतिकूलता को हटाने की चाहना द्वेष है। अतः जहाँ हर्षविषाद है, हास्य-शोक है, रति-अरति है वहाँ राग-द्वेष हैं। राग-द्वेष से परे होने का उपाय है- अनुकूलता में हर्ष या रति न करना, अनुकूलता का सुख न भोगना जीव-अजीव तत्त्व [3]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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