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केवली अवस्था में पहले स्थूल मन और फिर सूक्ष्म मन के निरोध की आवश्यकता ही नहीं रहती । मन की प्रवृत्तियों का निरोध यदि अयोगी केवली अवस्था में ही होता है तो फिर सयोगी केवली अवस्था में मन क्या कार्य करता है? क्योंकि निर्विकल्पता की अवस्था में तो मन के लिए कोई कार्य ही शेष नहीं रहता है । यदि ऐसा मानें कि केवली में भाव मन नहीं रहता है, मात्र द्रव्य मन रहता है, किन्तु द्रव्यमन भी बिना भाव मन के नहीं रह सकता । भाव मन के अभाव में द्रव्य मन तो मात्र एक पौद्गलिक संरचना होगा, जो जड़ होगा और जड़ में विचार सामर्थ्य संभव नहीं है और विचार के बिना मनोयोग के निरोध का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है । मेरी दृष्टि में इस संदर्भ में लेखक का यह मंतव्य उचित ही लगता है कि वस्तुतः विचार या विकल्प दो प्रकार के होते हैं - एक कामना रूप विचार और दूसरा निर्विकार या निष्काम विचार। निष्काम विचार में मात्र कर्तव्य बुद्धि होती है । केवली में कामनारूप या जिज्ञासा रूप विकल्प नहीं होते, किन्तु विवेक रूप विकल्प तो होते हैं। वह भी द्रव्य को द्रव्य के रूप में, गुण को गुण के रूप में और पर्याय को पर्याय के रूप में जानता है और ऐसा ज्ञान विकल्परूप ज्ञान है।
ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हेतु ज्ञान का अनादर नहीं - ज्ञान का अनाचरण है - लेखक जी ने ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन के हेतु की समीक्षा करते हुए एक महत्वपूर्ण बात कही है। सामान्यतया यह माना जाता है कि, ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन का हेतु ज्ञान का 'अनादर' करना है। अनादर का सामान्य तात्पर्य उपेक्षा करना भी है, किन्तु लेखक ने यहाँ एक महत्वपूर्ण बात कही है वह यह कि प्राचीन परम्परा में ' आदर' शब्द आचरण के अर्थ में आया है। प्राचीन मरुगुर्जर भाषा में भी आदर शब्द का अर्थ आचरण या स्वीकार करना देखा जा सकता है, जैसे " जाण्या पिण आदरिया नहीं " इसका तात्पर्य यह है कि वस्तुतः ज्ञानावरणीय कर्म का बंध का हेतु सत्य को सत्य समझते हुए भी उसे जीवन में आचरित नहीं करना है । इसके समर्थन में एक युक्ति यह भी दी जा सकती है - पंचाचारों में एक ज्ञानाचार भी है, अत: ज्ञान जानना नहीं, उसे आचरण में उतारना है। वस्तुतः इस कथन से एक संकेत निकलता है कि, वह ज्ञान जो आचरण में प्रतिफलित नहीं होता है वह अज्ञान रूप ही है, विष को जीवन घातक जानकर भी जो उसे खाता है, वह अज्ञानी है। वस्तुत: ज्ञान कोई व्यक्ति या वस्तु नहीं है जिसका आदर या अनादर होता है। ज्ञान एक गुण है और किसी भी गुण का आदर करने का तात्पर्य है उसे जीवन में उतारना । सामान्यतया ज्ञान के अनादर का अर्थ ज्ञान के साधनों का अनादर या उपेक्षा माना जाता है, लेकिन
बंध तत्त्व
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