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________________ अपने को महान्, संपन्न व बड़ा नहीं मानता है, उसे हीनता या विपन्नता, लघुता व अभाव का अनुभव नहीं होता है, क्योंकि उसके तृष्णा नहीं होती है । जहाँ हीनता, विपन्नता, लघुता व अभाव नहीं है, सच्चे अर्थों में वहाँ ही महानता, संपन्नता, पूर्णता है, वही उच्च गोली है । यह नियम है कि जिसे गुरुता व बड़प्पन का अनुभव नहीं होता है, उसे लघुता - हीनता का भी अनुभव नहीं होता है। यही कारण है कि पूर्ण निरभिमानी होने पर उच्च गोत्र की चरम उत्कृष्ट अवस्था पर पहुँचकर मुक्त अवस्था में गोत्र कर्म से अतीत होने पर, सिद्धों में अगुरु- लघु गुण सदा के लिए प्रकट हो जाता है । अगुरुलहु अत्तं णाम सव्वजीवाणं पारिणामियमत्थि सिद्धेसु खीणसुकम्मेसु वि तस्सुवलंभा ॥ -धवला पुस्तक 6.1.9.278 पृ.113 अगुरुलघु नामक गुण सर्व जीवों में पारिणामिक है, क्योंकि शेष कर्मों से रहित सिद्धों में भी उसका सद्भाव पाया जाता है। अगुरुलघु जीव का स्वाभाविक गुण है | स्वभाव होने से पारिणामिक भाव है । गोत्र कर्म के क्षय से अगुरुलघु गुण प्रकट होता है । अतः गोत्र कर्म गुरुत्वलघुत्व भाव का सूचक है अर्थात् अपने को छोटा-बड़ा मानना, दीन-हीन मानना गोत्र कर्म है जो संतति-क्रम से सतत प्रवाहमान है। स्वाभाविक गुणों के आधार पर सब जीव समान हैं। ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक गुणों में किसी जीव में अन्तर नहीं है । अन्तर इन गुणों के प्रकटीकरण में है। अतः प्राणी अपने दोषों का त्याग करने का पुरुषार्थ कर जिस क्षण चाहे उसी क्षण इन गुणों को प्रकट कर सकता है। उस शुद्ध निर्मल स्वभाव में गुरुत्व - लघुत्व का भाव नहीं होता है, अगुरुलघुत्व अवस्था रहती है । जितनी - जितनी नीच गोल कर्म की कमी या क्षय होता जाता है, मद-मान गलता जाता है, उतना - उतना व्यक्तित्व का मोह तथा गुरुत्व - लघुत्व (छोटे-बड़े का भाव ) घटता जाता है और मुक्त होने पर अगुरु-लघु अवस्था प्रकट हो जाती है अर्थात् मुक्त जीव के गुरुत्वलघुत्व का अनुभव नहीं रहता है। आशय यह है कि अपने को जाति, कुल, बल, तप, श्रुत (ज्ञान) आदि में उत्कृष्ट श्रेष्ठ या विशिष्ट मानना और दूसरों को निकृष्ट, हीन व नीचा मानना विशिष्टता नहीं अशिष्टता है। इसके विपरीत अपने को अयोग्य, असमर्थ, निकृष्ट एवं हीन [204] जैतत्त्व सा
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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