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मानसिक स्थिति का होना, आर्त- रौद्र ध्यान होना वश की बात नहीं है, ये स्वत: होते हैं। इसी प्रकार सात्त्विक भोजन, शरीर का पुष्ट होना, साता एवं असाता का वेदन होना, जीवनी - शक्ति का सुरक्षित रहना, शरीर-मन का प्रसन्न होना स्वत: होता है । नामकर्म की कुछ प्रकृतियों के विशेष अर्थ
विहायोगति नामकर्म
जीव की चाल को विहायोगति कहते हैं । इसके दो भेद हैं- शुभ विहायोगति और अशुभ विहायोगति ।
शुभ - विहायोगति - जिस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ हो अर्थात् उसे चलने में कठिनाई नहीं हो, वह शुभ विहायोगति है ।
अशुभ- विहायोगति - जिस कर्म के उदय से जीव की चाल अशुभ हो अर्थात् उसे चलने में कष्ट हो वह अशुभ विहायोगति है । जैसे लंगड़ा कर चलना, पोलियो होने से पैरों को घसीटते हुए चलना ।
कुछ विद्वान् हाथी जैसी चाल को शुभ और ऊँट जैसी चाल को अशुभ मानते हैं, परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं प्रतीत होता है, कारण कि पशु, पक्षी एवं सब जीवों को अपनी स्वाभाविक व सहज चाल बुरी नहीं लगती है। ऊँट को भी अपनी चाल अच्छी ही लगती है, बुरी नहीं ।
जिज्ञासा - विहायस् आकाश को कहते हैं। वह सर्वत्र व्याप्त है । अतः जो भी गति होती है वह आकाश में ही होती है, अन्यत्र हो ही नहीं सकती, फिर गति शब्द के साथ विहायस् विशेषण क्यों लगाया गया ?
समाधान- विहायस् विशेषण न लगाकर यदि केवल गति ही कहते तो नाम कर्म की प्रथम प्रकृति का नाम भी गति होने के कारण पुनरुक्ति दोष की आंशका हो जाती और इन दोनों गतियों की भिन्नता को जानने में भ्रान्ति हो जाती । अतः यहाँ जीव की चाल को गति समझने और नरक आदि गति को ग्रहण न करने हेतु विहायस् शब्द लगाना उपयुक्त ही है।
अगुरुलघु नाम कर्म
जिस प्रकृति के उदय से कान, नाक, आँख, हाथ, पैर आदि शरीर के अवयव छोटे-बड़े न होकर यथोचित हों, वह अगुरुलघु नामकर्म प्रकृति है। इसका उदय प्रत्येक प्राणी में सदैव रहता है।
बंध तत्त्व
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