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उपस्थित हो जायेगा और इनके होने पर वह दर्शन 'दर्शन' गुण ही न रहेगा, ज्ञान गुण हो जायेगा।
प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर आचार्यों ने दर्शन की परिभाषा करते हुए 'सामान्य ग्रहण' दर्शन क्यों कहा?
समाधान में कहना होगा कि दर्शन निर्विकल्प व अनाकार होने से अनिर्वचनीय है। जो अनिर्वचनीय है, उसे वचन से परिभाषित नहीं किया जा सकता। परन्तु दर्शन को समझाने के लिए कोई न कोई आधार प्रस्तुत करना आवश्यक था। आचार्यों ने एक निषेधात्मक संकेतपरक मार्ग का अनुगमन किया और वह यह है कि उन्होंने ज्ञान गुण को परिभाषित किया और कहा कि जिसमें विशेष-विशेष जानकारी हो, वह ज्ञान है और ज्ञान गुण से भिन्न जो गुण है, वह दर्शन गुण है। ज्ञानगुण है- विशेष की जानकारी, अतः ज्ञान गुण से भिन्न गुण वह होगा जिसमें विशेष की जानकारी का अभाव हो। संसार में दो ही बातें देखी जाती हैं- सामान्य और विशेष। अतः विशेष के अभाव को दिखाने के लिए आचार्यों ने संकेतात्मक रूप से सामान्य शब्द का प्रयोग किया। जिसका वास्तविक आशय है- सामान्य प्रतिभास, निर्विशेष अनुभव न कि सामान्य की जानकारी। प्रतिभास और जानकारी ये दो सर्वथा भिन्न शब्द हैं। जानकारी में ज्ञान होता है और प्रतिभास में अनुभव होता है।
तात्पर्य यह है कि जहाँ सामान्य ग्रहण दर्शन कहा है वहाँ सामान्य शब्द का प्रयोग अविशेष अनुभूति के लिए हुआ है, न कि ज्ञान के लिए। अनुभूति का ही दूसरा नाम संवेदन है। श्री वीरसेनाचार्य ने दर्शन और ज्ञान के स्वरूप पर ऊहापोह करते हुए 'सगसंवेयण' स्व-संवेदन को दर्शन कहा है। (षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक 13 पृ. 355)
जीव को छोड़कर शेष अन्य किसी द्रव्य को न तो संवदेन ही होता द्दर और न जानकारी ही। अतः संवेदन और ज्ञान ये दोनों ही जीव के असाधारण गुण या लक्षण हैं।
ऊपर कह आए हैं कि स्व-संवदेन को दर्शन कहते हैं। संवदेनशीलताअन्तर्मुख चैतन्य, चिन्मयता, निर्विकल्पता, अनाकारता, अभेदता, निर्विशेषता, सामान्य ये दर्शन गुण के द्योतक हैं। दर्शन अनिर्वचनीय होता है, अनुभवगम्य होता है। अतः इसे अंगुलि निर्देश रूप संकेत से ही समझाया जा सकता है, किसी शब्द से नहीं समझाया जा सकता है:- सव्वे सरा नियटंति (आचारांग सूत्र)
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जैनतत्त्व सार