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करण- सिद्धान्त : एक विवेचन
जैन-दर्शन की दृष्टि में कर्म भाग्य विधाता है। जैन कर्म-ग्रन्थों में कर्म - बंध और कर्मफल भोग की प्रक्रिया का अति विशद वर्णन है । उनमें जहाँ एक ओर यह विधान है कि बंधा हुआ कर्म फल दिये बिना कदापि नहीं छूटता है, वहीं दूसरी ओर उन नियमों का भी विधान है, जिनसे बंधे हुए कर्म में अनेक प्रकार से परिवर्तन भी किया जा सकता है। कर्म बंध से लेकर फल- भोग तक की इन्हीं अवस्थाओं व उनके परिवर्तन की प्रक्रिया को शास्त्र में करण कहा गया है। कर्म-बंध व उदय से मिलने वाले फल को ही भाग्य कहा जाता है । अत: 'करण' को भाग्य परिवर्तन की प्रक्रिया भी कहा जा सकता है। 'महापुराण' में कहा है
विधिः, स्रष्टा, विधाता, दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति, पयार्याः कर्मवेधसः ॥437 ॥
विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म, ईश्वर ये कर्मरूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्द हैं। अर्थात् कर्म ही वास्तव में ब्रह्मा या विधाता है।
करण आठ हैं- 1. बंधन करण 2. निधत्त करण 3. निकाचित करण 4. उद्वर्तना करण 5. अपवर्तना करण 6. संक्रमण करण 7. उदीरणा करण और 8. उपशमना करण । कर्म-सिद्धान्त विषयक गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह, कम्मपयडि आदि ग्रन्थों में इन आठ करणों में कर्मों की आठ अवस्थाओं का वर्णन है, जिनका विवेचन वनस्पति विज्ञान एवं चिकित्सा शास्त्रके नियमों व दृष्टान्तों द्वारा मनोविज्ञान एवं व्यावहारिक जीवन के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
( 1 ) बन्धन करण- कर्म परमाणुओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने को बंध कहा जाता है। यहाँ कर्म का बंधना या संस्कार रूप बीज का पड़ना बंधन करण है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में ग्रन्थि-निर्माण भी कहा जा सकता है । जिस प्रकार शरीर में भोजन के द्वारा ग्रहण किया गया अच्छा पदार्थ शरीर के लिए हितकर और बुरा पदार्थ अहितकर होता है इसी प्रकार आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए शुभ-कर्मपरमाणु आत्मा के लिए सुफल - सौभाग्यदायी एवं ग्रहण किए गए अशुभ कर्मपरमाणु आत्मा के लिए कुफल- दुर्भाग्यदायी होते हैं । अतः जो दुर्भाग्य को दूर रखना चाहते हैं उन्हें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पाप प्रवृत्तियों - अशुभ कर्मों से बचना चाहिये क्योंकि इनके फलस्वरूप दुःख मिलता ही है। और जो सौभाग्य चाहते हैं, उन्हें सेवा, परोपकार, वात्सल्य भाव आदि
जैतत्त्व सा
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