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(8) अंतराय : दान (करुणा, उदारता, कृपा), लाभ (अभाव का अभाव, ऐश्वर्य, पूर्णता), भोग (निराकुल सुख का अनुभव), उपभोग (निराकुलता के सुख की प्रति क्षण अक्षय नूतन अनुभूति होना), वीर्य (सामर्थ्य या पराक्रम), इनकी अभिव्यक्ति में मोह के कारण विघ्न पड़ता है। यह विघ्न ही अंतराय कर्म है। ___ इन आठों कर्मों का विशद् वर्णन लेखक की बंध-तत्त्व पुस्तक में प्रत्येक कर्म के वर्णन के प्रारंभ में दिया गया है। कर्म ८ ही होते हैं। निकाचित् और सामुदायिक कर्म नहीं होते, कर्म की अवस्थाएँ होती हैं । यहाँ कर्म की सामुदायिक अवस्था का वर्णन किया जा रहा है:सामुदायिक कर्म
सामुदायिक कर्म का अर्थ प्रचलित मान्यतानुसार अनेक जीवों के समुदाय के किसी घटना विशेष में एक साथ कर्म का बंधना तथा फिर उस बंधे हुए कर्म का एक साथ उदय में आना जिसके परिणामस्वरूप उन जीवों के समुदाय की एक साथ मृत्यु होने अथवा अन्य कोई एक-सा फल देने वाली घटना माना जाता है। परन्तु यह मान्यता जैन कर्म सिद्धान्तानुसार विचारणीय है, यथा- कर्म का बंध चार प्रकार का है। उसमें से स्थिति तथा अनुभाग बंध कषाय (राग-द्वेष-मोह) से होता है। कषाय भाव किन्हीं दो व्यक्तियों का भी समान नहीं होता। अतः किन्हीं दो व्यक्तियों का स्थिति व अनुभाग बंध भी समान नहीं हो सकता तथा पूर्व में बंधी हुई कर्म की स्थिति व अनुभाग में उस जीव के कषाय में वृद्धि व ास होने से निरंतर संक्रमण होता रहता है। इस नियम के अनुसार पूर्व में बद्ध कर्म के स्थिति व अनुभाग में परिवर्तन होता रहता है। कर्म का उदय कर्म की स्थिति व अनुभाग बंध के अनुसार होता है। अतः अनेक व्यक्तियों का समुदाय तो दूर रहा, किन्हीं दो व्यक्तियों के कर्मबंध की स्थिति व अनुभाग समान नहीं हो सकते, और न किसी एक व्यक्ति की बंधी हुई कर्म की स्थिति व अनुभाग ही अन्तर्मुहूर्त तक भी एक से रहते हैं। अतः किन्हीं जीवों के समुदाय की एक सी कर्म स्थिति बंधना तथा स्थिति एक सी समान होना कैसे संभव है? कदापि नहीं। यही तथ्य अनुभाग बंध पर भी घटित होता है अर्थात् अनुभाग भी एकसा नहीं रहता। अतः एक समान फल नहीं मिल सकता।
___ उपर्युक्त विषय में आयु कर्म अपनी विशेषता रखता है। तदनुसार उसकी स्थिति में निरन्तर परिवर्तन नहीं होता है, परन्तु तिर्यंच, मनुष्य और देव इन तीनों आयु कर्मों की स्थिति शुभ परिणामों से बंधती है, कषाय की क्षीणता से बंधती है।
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जैनतत्त्व सार