________________
यह निय है कि जो उदय होता है वह अस्त होता है। उदय का व्यय होता है। कर्म के उदय का रस प्रतिक्षण क्षीण होता है, अतः कर्म की यह निर्जरा निसर्ग से प्रत्येक जीव के प्रतिक्षण हो रही है। कर्म का जो भी उदय होता है, वह निर्जरित ही होता है। इस निर्जरा को निर्जरा तत्त्व में ग्रहण नहीं किया है। क्योंकि इस निर्जरा के साथ भोग लगा हुआ है। भोग से नवीन कर्मों का बंध होता है। अतः ऐसी निर्जरा होने को कोई अर्थ नहीं है। इसका कोई महत्त्व नहीं है। अर्थहीन और महत्त्वहीन होने से साधना में इसका स्थान नहीं है। जीव के द्वारा बिना कामना किए स्वतः ही होने से इस निर्जरा को 'अकाम निर्जरा' कहते हैं तथा यह निर्जरा कर्म का विपाक अर्थात् उदय होने पर होती है, अतः इसे 'सविपाक निर्जरा' भी कहते हैं। यह अकाम सविपाक निर्जरा छः कायों में प्रत्येक जीव के प्रतिक्षण होती है। सकाम निर्जरा
दूसरे प्रकार की निर्जरा है पूर्व संचित कर्मों को उदय में लाये बिना ही अर्थात् बिना फल भोगे की निर्जरित कर देना। इसके लिए कर्म-बंध की प्रक्रिया को समझाना होगा। भोग से ही कर्म बंधते हैं, शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के निमित्त से अनुकूलता में सुखी होना, प्रतिकूलता में दु:खी होना भोग है। जिस वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि के निमित्त से सुख भोगा जाता है, हर्ष होता है उसके प्रति हर्ष, रति व राग उत्पन्न होता है और उसके साथ रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है। इसी प्रकार जिन निमित्तों से दुःख भोगा जाता है क्षोभ होता है, उनके अरति व द्वेष उत्पन्न होता है उसके साथ द्वेषात्मक संबंध स्थापित हो जाता है। किसी के साथ संबंध स्थापित होना, सम्बन्ध जुड़ना ही बंध है। सम्बन्ध जुड़ना ही बंध है। सम्बन्ध स्थापित हुए बिना बंध नहीं होता है। उदाहरण के लिए प्रत्येक प्राणी की इन्द्रियों के समक्ष अगणित विषयवस्तुएं उपस्थित होती रहती है। वह कान से अगणित शब्द सुनता है, नयन से अगणित वस्तुएँ देखता है। उन सुनाई देने वाले शब्दों और दिखाई देने वाली वस्तुओं में से जिनक प्रति आकर्षण होता है, राग होता है व हर्ष होता है, उनसे वह प्रभावित होता है। इस प्रभा का उके अन्त:करण, कार्मण(कारण) शरीर पर अंकित हो जाना, कर्म बंध होना है। परन्तु जिन शब्दों व वस्तुओ के प्रति कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं करता है, उदासीन रहता है, राग-द्वेष नहीं करता है, रति-अरति, हर्ष-शोक नहीं करता है, उससे सम्बन्ध स्थापित नहीं होता है, उनका प्रभाव नहीं पड़ता है, उनसे कर्म बंध नहीं होता है। अतः कर्म-बंध का कारण राग-द्वेष अर्थात् रति
निर्जरा तत्त्व
[109]