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द्वेष आदि बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं। सुखभोग की लालसा का अन्त होते ही स्वार्थभाव, सर्वात्मभाव में रूपान्तरित हो जाता है और क्रिया रूप में सेवाभाव या सर्वहितकारी प्रवृत्ति के रूप में प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो स्वार्थभाव जनित अशुभ प्रवृत्तियों का उदात्तीकरण होकर वे आत्मीयता, सहृदयता, सदाचार, समता, शांति, प्रीति में परिणत हो जाती हैं।
शुभयोग साधना में आदि से लेकर अन्त तक विद्यमान रहता है। शुभयोग की भूमिका में ही साधना के संवर और निर्जरा अंग पनपते हैं। संवर-निर्जरा से पुण्य पोषित होता है और पुण्य से संवर-निर्जरा पोषित होते हैं। इस प्रकार परस्पर पोषित होते हुए साधना की चरम सीमा अर्थात् कैवल्य अवस्था में पुण्य भी चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं। दान, शील, तप और भावना रूप साधना के चार अंगों में दान या पुण्य का प्रथम स्थान है। दान या सेवा का उदय होता है-आत्मीय भाव के विकास से। आत्मीय भाव का विकास होता है स्वार्थभाव गलने से अर्थात् सुख भोग की लालसा घटने से, शास्त्रीय शब्दों में कषाय या राग के मंद पड़ने से। __कषाय की मंदता या पतलापन ही साधना का प्रारम्भ है। कषाय की मंदता ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है त्यों-त्यों पुण्य व शुद्ध भावों की वृद्धि होती जाती है अर्थात् आत्मीय भाव व्यापक बनता जाता है और कषाय का अन्त हो जाने पर पुण्य चरम सीमा पर पहुँच जाता है तथा आत्मीय भाव सर्वात्मभाव का रूप ले लेता है। साधनावस्था में पुण्य की वृद्धि और आत्मीयता का विकास साथ-साथ होते है। आत्मीयता का विकास ही आत्मा का विकास है, जैसे चन्द्रिका चन्द्र के विकास की प्रतीक है। आत्मीयभाव का क्रियात्मक रूप ही शुभयोग है।
शुभ योग के अभाव में साधना संभव नहीं है। कारण कि सदेह अवस्था में मन, वचन, काया के योगों की प्रवृत्ति अवश्यम्भावी है। योग प्रवृत्ति का रुकना ही मृत्यु है। अतः देह के रहते प्रवृत्ति अनिवार्य है। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती हैशुभ और अशुभ। शुभ प्रवृत्ति का अभाव अशुभ प्रवृत्ति का द्योतक है, जिसका साधना में कोई स्थान नहीं है। अतः साधनावस्था में शुभ प्रवृत्ति अवश्यम्भावी है। संवर और निर्जरा का पोषण भी कषाय की मंदता अर्थात् शुभप्रवृत्ति या शुभयोग से ही होता है। यदि शुभयोग नहीं हो तो अशुभयोग होगा जिसमें संवरनिर्जरा संभव नहीं है। वस्तुतः शुभयोग, संवर-निर्जरा साधना का आधार है। कारण कि जैसे प्राण के न रहने पर जीवन का अन्त हो जाता है उसी प्रकार शुभ
आस्रव-संवर तत्त्व
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