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चिरंतन-शाश्वत महानता, संसार और काया की असारता, वैराग्य द्वारा आत्मसत्ता की आराधना की महत्ता - यह सब सहज, सशक्त रूप में प्रतिपादित हुआ है एक सरित्-धारा की भाँति । पढते हुए बलकि गान रूप में सुनते हुए और विशेष तो नाट्यरूप में इस रास-कथा को देखते हुए यह संदेशवोध शत-प्रतिशत सिद्ध होकर रहता है। कथा की सार्थकता, प्रभाविकता, प्रभावोत्पादकता इस में निहीत है। अन्य कथाओं की तुलना में इस कथा की प्रभावोत्पादकता
__ आज वर्तमान में उपलब्ध प्रचार के दृश्य-श्राव्य माध्यम जब नहीं थे तब इस कथा ने ग्राम-नगर प्रदेशों में नाट्य-दृश्य रूप और कथा-श्राव्य रूप में बडा ही प्रभाव छोडा था, इस प्रकार के ऐतिहासिक वृत्तांत्त उक्त कथा के जन्म प्रदेश उत्तर-भारत के वयस्कों, विद्वानों, मुनिजनों द्वारा प्राप्त होते है। ये सारे प्रस्तुत कथा की सार्थकता-सफलता की प्रतीति देते है। इन विशिष्ट जनों से हमारा यह जानने का प्रयास भी चल रहा है कि क्या ऐसी प्रेरक कथा ने वैसे प्रभावोत्पादक, परिवर्तनकारक, शीघ्र वैराग्य-पोषक उत्पादक परिणाम भी श्रोता-दृष्टा समाज पर छोडे थे कि जैसे जैन परंपरा में नेम-राजुल, श्रीपाल-मयणा, एलाची-कुमार धन्ना-शालीभद्र जैसी रास कथाओं ने और जैनेतर परंपराओं में भर्तृहरि, गोपीचंद-मेनावती, गोरखनाथ-मत्स्येन्द्रनाथ एवं श्री मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम जौसे बलदेवों एवं श्रीकृष्ण जैसे वासुदेवों की प्रेरक-कथाओं और लीलाओं एवं नाटकों ने बृहत् समाज पर छोडे थे ?
उत्तर भारत के, सारे ही भारत के विशाल समाज पर इन जैनेतर कथाओंलीलाओं-नाटकों की प्रभावोत्पादकता सर्व विदित, सर्वज्ञात है। जैन रासाकथाओं की भी ऐसी प्रभावपूर्णता, प्रेरकता जैन इतिहास के पृष्ठों पर एवं कईयों के हृदयपट-स्मृतिपट पर अंकित है | पश्चिम भारतमें गुजरात-राजस्थान में - हमनें स्वयं ने भी स्वानुभव से यह अवलोकन किया है। एक ही ऐसे दृष्टांत की स्मृतिरूप में भगवान नेमकुमार और राजुल की प्रेरक कथा के नाट्यात्मक मंचन का प्रसंग, हमारी बाल्यावस्था का, हमारे सन्मुख है।
तव वतन जन्मभूमि अमरेली में पालीताणा से रास-कथाएँ नाटक रूप में भी प्रस्तुत करने संगीत मंडलियाँ आती रहती थी। ठीक स्मरण है एक बार कोई लब्धिसूरीश्वर संगीत कथा मंडलीने नेमकुमार-राजुल के प्रसिद्ध करुणा
ब्रह्म गुलाल मुनिकथा: * 585