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मथरामल्ल भी उन्हें डिगा नहीं सके, उल्टे स्वयं ही समझ गये और क्षुल्लकदीक्षित होकर मुनि ब्रह्मगुलाल के शिष्य बन गये।
'गये मनाने को मथुरामल्ल यति धर्म महिमा जानी। क्षुल्लक होकर साथ हो लिए, भोगवासना सब हानी। यह वैराग्य कौतुहल बांचो, मन लाके सब नरनारी। हँसी खेल में स्वांग बनाया, जिनमत की दीक्षा धारी॥ स्वामी ब्रह्मगुलाल मुनि की सुनो कथा अचरजकारी भारी ।।१६
और इस प्रकार मुनि ब्रह्मगुलाल की यह अचरजकारी गीत-कथा समाप्त होती है। कथा काव्य-कला पक्ष :
अब देखें प्रस्तुत कथा की ढालों में वर्णित विविध छंदों और रसो की काव्य-कलामय अभिव्यक्ति।
रासो-कथा-काव्य की क्षमता-अक्षमता की दृष्टि से निम्न बिंदुओं पर शोधन-चिंतन आवश्यक एवं उपयोगी हो सकता है -
- ३ काव्य गुण : प्रसाद, ओज, माधुर्य - छंद और रागादि - अलंकार - रस और रस-निष्पत्ति - कथारस क्षमता - भाव-संप्रेषण - उद्देश्य और संदेश-बोध
केवल १५ पृष्ठों की इस लघुकथा के लाघव के बावजूद उसमें प्रसाद, ओज, माधुर्य के तीनों काव्य-गुण आद्यान्त दृष्टिगत होते है। ओज-गुण की अभिव्यक्ति देखें । - __राजकुमार द्वारा सिंहरूपधारी ब्रह्मगुलाल को ‘सिंह नहीं तू स्यार है ... शेर नहीं, तू है कोई गीदड, ध्रग ध्रग तेरी महतारी' के चुनौतीभरे ताने के मुंहतोड प्रत्युत्तर में लपकते-गरजते-टूट पडते सिंह का कैसा तादृश चित्रण इन शब्दों में कथाकार ने किया है -
ब्रह्म गुलाल मुनिकथा: * 583