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'गगनमंडल में गउआ बियाणी, धरती दूध जमाया... .
'अनंत अनंत भाव, भेद से भरी जो भली, अनंत अनंत नयनिक्षेप से व्याख्यातित है ।" - यह अनंतरूपा संगीतमय देशना ही तो क्या उत्सव नहीं है हमारे बहुजनोपकारक विशद विशाल रासो-साहित्यका कथासाहित्य का ? ___हमारे श्वेतांबर, आम्नाय के कथानुयोग - चरणकरणानुयोग में वह ‘रासो साहित्य' का नामरूप लेकर अनेक पद्य-प्रकारों में विस्तृत हुई है । (गद्य प्रकारों में भी, ‘उपमिति भवप्रपंच कथा' आदि) तो दिगंबर आम्नाय के तत्त्वलक्षीगुणलक्षी-सिद्धांतलक्षी अभिगम में वह ‘पद्य कथा साहित्य' के ('पुराण' शीर्षक गद्य-प्रकारों के अतिरिक्त) रूप में यथा - 'रत्नत्रय व्रतकथा', 'दशलक्षण व्रतकथा' इत्यादि, इत्यादि । इन गुण-महिमा-वाचक कथाप्रकारों के साथ उसका दूसरा प्रकार है व्यक्ति-वाचक जो भी फिर ज्ञान, वैराग्य आदि गुणों का ही महिमा-मंडन करती है।
जैन रासा साहित्य की इस प्रकार की एक सरल सुंदर और सरिता धारावत् तरल, रोचक-रोमांचक सत्य कथा - गीतकथा - कृति यहाँ प्रस्तुत है - ब्रह्मगुलाल मुनिकथा। कथा-तथ्य : जोगी रासादि छंदों में :
धरणेन्द्र-पद्मावती परिपूजित पुरुषादानीय प्रभु पार्थनाथ की पूजक परंपरा रही है 'पद्मावती पोरवाल वंश परंपरा ।'
ज्ञान एवं कला की उपासना और रचना-क्षमता इस परंपरा की लाक्षणिकता रही है । ‘समाधिशतक' जैसी ज्ञानपरक कृतियों के सृजक आचार्य पूज्यपाद एवं अन्य ऐसे ही ज्ञान-विद्या-वैराग्य संनिष्ठ माघवचन्दजी, प्रभावचन्दजी, महावीर कीर्तिजी एवं आसन्न वर्तमान में विमलसागरजी, निर्मलसागरजी आदि दिगंबर आम्नाय के जैनाचार्यों ने इस परंपरा को पल्लवित किया है अपने जीवन, ज्ञानसृजन एवं कला-प्रस्तुतीकरण से।
इन धर्मप्रभावक सृजकों की श्रृंखला में प्रेरक वृत्तांत्त आता है स्वामी ब्रह्मगुलाल मुनि के पावन जीवन का जो कि 'कलामय, संगीतमय, नाट्यमय ऐसे अपने बहुरूपिया' स्वरूप को अंत में परिवर्तित कर देता है निग्रंथ मुनिरूप में । चारसौ वर्ष पूर्व, प्राय: विक्रम संवत १६४० के समय में घटित यह सत्यकथा आज भी इतनी रसमय, रोमांचक, रोमहर्षक और प्रेरक रही है। गुर्जर-राजस्थानी रासा साहित्यवत् ही यह शौर्य(वीर) एवं वैराग्य रस
ब्रह्म गुलाल मुनिकथा: * 575