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त्यां
उदाहरण के लिए -
वर्तमान गुजराती रचना में प्रयुक्त शब्द नगरी नयरी ज्यां
जिहां तिहां
जेह जेनी (जिसकी) जस... इत्यादि ।
संपूर्ण रचना चार खंडो में विभक्त है। प्रथम तीन खंडो में भगवान नेमनाथ के आठ पूर्वभव तथा राजुल के साथ उनके जो संबंध थे उनका सुंदर वर्णन कविवर ने किया है । चौथे खंड में नेमनाथ भगवान, जो युवावस्था में पदार्पण कर चुके है उनकी कुमारक्रीडा, दीक्षा और केवलज्ञानोत्पत्ति तथा संघस्थापना आदि का काव्यमय वर्णन है। वैसे बालजीवों के समक्ष प्रभु का जीवन चित्रित हो रहा है, इसलिए पूज्य गणिवरश्री पद्मविजयजी ने सरल भाषा का ही उपयोग किया है। जैसा कि जिनेन्द्रसूरिजी अपनी प्रस्तावना में लिखते है। संस्कृत-प्राकृत भाषा का बोध न हो ऐसे लोगों की विविध ढाल-रास चोपाई इत्यादि के गान के द्वारा बोध और भक्तिका लाभ मिल सकता है ।
रचना के आरंभ में माता सरस्वति की स्तुति की गई है । तुजने सहु समरे सदा तहारा गुण विख्यात तुज विण शिवपद नवि लहे, तुजने समरु मात ।
तत्पश्चात् तीर्थंकर भगवान महावीर की वंदना करते हुए भक्त कविवर ने गाया -
चरम जिणंद चोवीशमो, प्रणमुं पद अरविंद वरते पंचम कालमां, शासन जस सुखकंद।
फिर भगवान नेमनाथ की वंदना करने के बाद कवि गुरु गौतम एवं सर्व गणधर तथा सर्व सूरीश, कृष्ण वासुदेव - बलदेव आदि का उल्लेख करके अपनी कथा में आगे बढते है।
काव्यरचना में, दोहा, चोपाई का प्रयोग किया गया है।
कवि ने उपमा अलंकार का सुंदर प्रयोग किया है। कृष्ण वासुदेव के शंख का वर्णन करते हुए कवि कहते है - शंख धवल है - कैसा धवल ?
570 * छैन यस. विमर्श