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काव्य-सौष्ठव :
___ 'आषाढभूति रास' के कथानक के मध्य भाग में श्रृंगार रस और अन्तिम भाग में भक्ति और वैराग्य भाव का प्रवाह मिश्रित रूप में काव्य की उत्कृष्टता बढाता है । वस्तुत: सभी जैन कथानकों की एक विलक्षणता ही है कि पुण्यकर्मों का फल दिखलाने के लिए कई-कई सुन्दरियों से उनके विवाह करवाए जाते है किन्तु नायिका-नायकगण अधिक भोगरत नहीं रह पाते और संसार और यौवन की क्षणभंगुरता का अनुमान करते हुए बहुत जल्दी ही विरक्ति-प्रवाह में बह जाते है। दाम्पत्य रति के सामान्य लक्षणों के प्रदर्शन के अतिरिक्त उसका विलासी रूप काव्यो में चित्रित नहीं हो पाता। रीतिकाल के प्रारम्भिक कवि और सम्राट शाहजहां से सम्मान प्राप्त 'सुन्दर' (१६८८ वि.) की नायिका तो अपनी चिरी हुई मांग (सीमंत रेखा) से ही विलासियों के मनों को चीर देता है। उसका बालों में कंगनी काढना इतना तीखा है कि सौतोंकी करौंत जैसा तीखा लगता है। चीर पहरै रौं को धरेगो धीर, मांग ही कै चीरे मैं हीयो ज्यों ज्यों कांगनी जे वारनि सूतिहौ, सौतिन के आंखिक करीत ही जियहु है । __सुंदर शृंगार (१६८८ वि.) जैसे नायिका भेद की परम्परा के प्रथम वाहक सुंदर कवि का नायिका के मांग निकालने और कंघी करने के आकर्षक चित्र सहज सौदानुभूतिजन्य न होकर ऊहात्मक ही अधिक है। समस्त जैन काव्यकारों ने राजुल, कोश्या तथा अन्य युवतियों के रूपवर्णन में अंग-प्रत्यंग के लिए परम्परागत उपमान अवश्य प्रयुक्त किए वेणी के लिए ‘पन्नग' मुख के लिए 'चन्द्रमा' नेत्रदृष्टि के लिए 'बाण', भृकुटि के लिए ‘धनुष', नासिका के लिए ‘कीर', अधर के लिए 'विद्रुम', कुच के लिए घट व 'श्रीफल', नाभि के लिए 'समुद्र की गहराई' तथा कटि के सिंह आदि-आदि । सौन्दर्यवर्णन के ये भारतीय मानक 'आषाढभूति रास' में भी उल्लिखित है। 'भुवनसुंदरि' और 'जयसुंदरि' दोनों युवतियों का रूप सौन्दर्य दृष्टव्य है -
'जा सिरि सोहै राषडी वेणी पन्नग मणि जइसी रे ॥ ७ ॥ तिलक वण्यो तिलवटि भलै, नयन वाण किय भल्ला रे ॥ ८ ॥ नाख्या नकवेसर वणी, कीर चंचु गहि फूली रे । विद्रुम अधर दीयै भला, देसत कवन न भूला रे ॥ ९॥
वाचक कनकसोम कृत आसाढभूति रास * 557