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कि उन्हें अपूर्व लक्षणोंसे युक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी।
तत्पश्चात् श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन तीर्थं नेमिनाथ का जन्म हुआ। नगर में हर्षोल्लास सहित विभिन्न उत्सव मनाए गए। आरती उतारी गई तथा घर के आंगन को मोतियों से मण्डित किया गया। देवलोक से इन्द्र इन्द्रानियाँ उपस्थित हुए तथा बाल तीर्थंकर का सुमेर पर्वत स्थित पाण्डुक शिला पर इन्द्र के द्वारा एक हजार आठ कलशों में जलभर कर अभिषेक किया गया। तथा दूध-दहीं, घृत-रस एवं औषधियों से मिश्रित जल के द्वारा भगवान का स्नान कराया गया। यथा -
सहस अटोतर इन्द्र के हाथि अवर भरि लीया जी देवतां साथि । जा हो जीऊ परि ढलिया, अहो दूध दही घृत रस कीजी धार । सार सुगंधी जी ऊषधी, अहो न्हवण भयौ शिवदेव कुमार ॥२६
इसके बाद तीर्थंकर का नामकरण संस्कार किया गया तथा उनका नाम रखा गया - नेमिकुमार । यथा -
अहो वज्र की सुइस्यो जो छेदिया कान, वस्त्र आभरण विनै बहुमान । अहो किया जी महोछा अतिघणा, वंदना भक्ति करि बारं जी बार । अहो कर जोडै सुरपति भणी, नाम दिये तसु नेमिकुमार ॥२७
नेमिकुमार सुख एवं ऐश्वर्य को भोगते हुए दूज के चन्द्रमा की तरह कब युवा हो गए इसका किसी को आभास ही नहीं हुआ । एक दिन अनेक यादव कुमारों, नारायण श्रीकृष्ण तथा अन्त:पुर के पूरे परिवार के साथ हाथी, रथ एवं पालकियों पर सवार होकर नेमिकुमार वन क्रीडा को गए। वे वन में विभिन्न प्रकार की वन क्रीडाओं में मस्त हो गए। एक युवती झूला झूलने लगी तो दूसरी हाथ में डण्डा लेकर उसे मारने लगी। एक युवती यह देखकर हँसने लगी तो दूसरी अपने पति का नाम लिखने में ही मस्त हो गयी। यथा -
एक तीया झुलै झुलणा, एक सखी हणै साट ले हाथि। एक सखी हा हा करै, अहो एक सखी लिहि कंत कौ नाव ॥२८
उसी स्थान पर गंगा के समान निर्मल जल के ओत-प्रोत एक विशाल एवं गहरी बावड़ी थी । नेमिकुमार ने बावडी में स्नान करने के बाद अपना दुपट्टा जल में डालकर अपनी भाभी जामवती से उसको धोने के लिए निवेदन किया। लेकिन जामवती को यह अच्छा नहीं लगा और कहने लगी कि यदि नारायण श्रीकृष्ण ऐसी बात सुन लें तो तुम्हें नगर से बाहर निकाल दें। उनके
ब्रह्मरायमलकृत नेमीश्वर रास का समीक्षात्मक अध्ययन * 545