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________________ आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका कर्मवर्गणा, एक-एक कर्मवर्गणा विषे अनन्त-अनन्त पुद्गल परमाणु, एक-एक पुदगल परमाणु अनन्त गुण अनन्त पर्याय सहित विराजमान। यह एक संसारावस्थित जीव पिण्ड की अवस्था। ___ इसी प्रकार श्री बड़ा जैन मंदिर मैनपुरी के शास्त्र भण्डार में एक विदुषीरत्न तल्हा की 'सम्यकत्व के दस भेद' नामक गद्य की पुस्तक भी मिलती है। इस पर संस्कृत भाषा का प्रभाव दिखाई पड़ता है। “जैसे-वीतराग की आज्ञा मात्र रुचि होई नान्यथावादिनो जिन। एवं आज्ञा सम्यकत्वं ज्ञातव्यं"।। 1 ।। इस प्रकार इस काल में हिन्दी-जैन-साहित्य की काफी प्रगति हुई थी। कविताएं अध्यात्म-रस से छलकती व निष्ठापूर्ण लिखी गई। कवि भी काफी बड़े-बड़े हुए। गद्य का विकास भी आदिकाल की अपेक्षा अच्छा हुआ। खड़ी बोली का स्वरूप गद्य-पद्य दोनों में दिखाई पड़ने लगा। आध्यात्मिकता के साथ जनहित की भावना स्पष्ट प्रतीत होने से जैन साहित्य को साम्प्रदायिक साहित्य समझकर अछूता नहीं रखना चाहिए। कामताप्रसाद जैन इस काल के साहित्य के विषय में लिखते हैं-'नि:संदेह इस काल को हिन्दी जैन साहित्य के पूर्व युग में 'स्वर्णकाल' कहना चाहिए। इसमें न केवल उत्कृष्ट गद्य के प्रारंभिक दर्शन होते हैं, प्रस्तुत जैन साहित्य के सर्वोत्कृष्ट हिन्दी कवि गण इसी काल में हुए। इस काल के जैन कवियों की रचनाएँ मुख्यत: आध्यात्मिक वेदान्त को लक्ष्य करके लिखी गई हैं। उस समय आध्यात्मिक शैली की साहित्य रचना सामायिक साहित्य प्रगति के सर्वथा अनुकूल थी। बनारसीदास, पाण्डे हेमराज, आनंदधन, यशोविजय जी. आत्माराम जी जैसे उच्च कोटि के कवि व आचार्य इस काल की महत्वपूर्ण देन है। कवि बनारसीदास की आत्मकथा 'अर्द्धकथानक' में खड़ी बोली भाषा का बीज देखा जा सकता है तथा हिन्दी साहित्य की प्रथम आत्मकथा का सम्मान भी इसे प्राप्त है। इस युग में आध्यात्मिक रचनाओं के साथ चरित्रात्मक रचनाओं के सृजन से जनता का मनोरंजन और उपकार हुआ। परिवर्तन काल : (18वीं और 19वीं शताब्दी) उपर्युक्त परिच्छेदों में हम देख चुके हैं कि सत्रहवीं शताब्दी की समाप्ति तक हिन्दी जैन साहित्य की पर्याप्त प्रगति हुई। अपभ्रंश-प्राकृत और पुरानी हिन्दी की रचनाएं विशाल परिमाण में उपलब्ध हो गई। मध्यकाल के उत्तरार्द्ध तक प्रादेशिक बोलियों के प्रभाव से मिश्रित प्राचीन हिन्दी साहित्यिक माध्यम बन चुकी थी। भाषा के साथ-साथ पद्य की विषय वस्तु तथा रूप में भी परिवर्तन हो गया। चरित्रात्मक रचनाओं की अपेक्षा 1. श्री कामताप्रसाद जैन-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास. पृ. 137.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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