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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
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भव में और परभव में दुःखदायक है। ऐसा जानकर चोरी नहीं करनी चाहिए।'' सभी कथाओं में ऐसा नहीं पाया जाता है। सद्गुणों के विकास एवं बुरे तत्त्वों या दुर्गुणों से बचने के लिए जो विचारधारा होती है, उसे बहुत ही कुशलता एवं विश्लेषणात्मक ढंग से भगवत् स्वरूप जी जैन के कथा संग्रहों में प्रस्तुत किया गया है, जिसे पढ़कर मन प्रसन्नता के साथ आध्यात्मिक विचारधारा का आनंद भी उठा सकता है। उन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी के प्रारंभ में कहानी में मर्मरूप में ऐसी पंक्तियाँ रखी हैं, जो कहानी के कथा बिन्दु की ओर भी संकेत करती हैं और साथ में सुविचार रूप चिंतन कणिका भी प्रस्तुत करती हैं। एक-दो दृष्टान्त इसके लिए काफी होंगे-'आत्म शोध' कहानी के शीर्षक के ऊपर उन्होंने संक्षेप में लिखा है-'मनुष्य, स्त्री आदि के लिए क्या-क्या 'पाप' नहीं करता, यहाँ तक कि जान देने को तैयार हो जाता है। किन्तु ..... वे उसको कितना चाहते हैं, यह रहस्य खुलता है, जब मोह का पर्दा दूर होता है।' (पृ. 67) 'शुद्ध और अशुद्ध प्रेम में अन्तर ही इतना है कि-एक में करुणा, कृपा, सहानुभूति, त्याग और सरलता की स्वर्गीय सुगन्ध आती है। और एक में-वासना, स्वार्थ, घृणा और कलह-कपट की नारकीय दुर्गन्ध।' इस कहानी का प्रारंभ भी अत्यन्त कुतूहलपूर्ण है-आकर्षक शैली में पुरानी कथा वस्तु को प्रस्तुत कर कहानी को नया रूप प्रदान करने की क्षमता भगवत जी में प्रचुर मात्रा में है, यथा
___ 'अचानक प्रभव की नजर सुमित्र पर पड़ी, तो तबियत बाग-बाग हो गई। चिल्लाया जोर से-कहाँ छिपे रहे इतने दिनों-दोस्त! मार डाला यार। तुमने तो। ढूंढते-ढूंढते नाकों दम आ गया।' लेखक छोटी-छोटी चेष्टा या व्यवहार को बहुत ही स्वाभाविकता तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रभावात्मक रूप से प्रस्तुत करने में निपुण हैं। 'अन्तर्द्वन्द्व' में सुमित्र और प्रभव दो मित्रों के बीच में एक स्त्री वनमाला आ गई कि 'गहरी दोस्ती के बीच में आ गई वनमाला-या कहो स्त्री का आकर्षण। स्त्री का आकर्षण हो या रूप की शराब। रूप की शराब कहो या काम बाण। और उस ताकत ने प्रभव को कह दिया, पागल। भूल गया वह हेयाहेय, उचित-अनुचित और अपने आपको भी-कामी में ज्ञान कहाँ ? जैसे दिगम्बरत्व के भीतर छल-छद्म नहीं, विकार नहीं। दार्शनिकता को भी काव्यात्मक शैली एवं मधुर भाषा में प्रस्तुत करने की विशेषता जैन जी की कथाओं में पाई जाती है-यथा1. मोहनलाल शास्त्री-मोक्षमार्ग की सच्ची कहानियाँ, पृ. 57. 2. भगवत जैन-अन्तर्द्वन्द्व, पृ. 81. 3. भगवत जैन-अन्तर्द्वन्द्व, पृ. 85.