SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 476 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य अध्यात्मक-विषय को स्पष्ट किया है। फिर भी कहीं रस-क्षति या उकताहट आने नहीं पाई है। रोचक कथा वस्तु (जो हम पहले देख चुके हैं) पात्रों का सुन्दर विश्लेषणात्मक चरित्र-चित्रण, वर्णनों की सुन्दरता, भाववाही आकर्षक कथोपकथन के साथ मुनि श्री ने इसके गठन में अंशमात्र भी शिथिलता नहीं आने दी है। प्रवाहानुकूल भाषा की सशक्तता सर्वत्र विद्यमान है। इस उपन्यास की शिल्प विषयक महत्ता, योग्यता देखकर अवश्य प्रतीत होता है कि टेकनिक की सफलता से 'रत्नेन्दु' उपन्यास सज्ज होने से पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहता है। उपन्यास में प्रारम्भ में ही हम नायक रत्नेन्दु को अपने साथियों के साथ शिकारार्थ जंगल में जाते समय उसकी चपलता, कार्यक्षमता, धैर्य और स्फुर्ति का संवाद के द्वारा पता पा लेते हैं तथा उसकी वीरता का परिचय उसके बिछुड़े साथी जयपाल की बातचीत से मिलता है। वह रत्नेन्दु के बिछुड़ जाने से भयभीत अन्य साथियों से कहते हैं-'नहीं, नहीं, यह बात कभी नहीं हो सकती। आपके विचारों को हमारे हृदय में बिल्कुल अवकाश नहीं मिल सकता। वे किसी हिंस्र जानवर के पंजे में आ जाय, यह सर्वथा असंभव है। क्योंकि मुझे उनकी वीरता और कला-कुशलता का भली-भांति परिचय है।' इस कथन में रत्नेन्दु की वीरता, धीरता जयपाल का अपने साथी-मित्र रत्नेन्दु पर अटूट भरोसा तो प्रकट होता ही है, साथ ही साथ कथावस्तु कैसे आगे बढ़ती है, यह जानने की जिज्ञासा भी पाठक को आगे पढ़ने के लिए उत्सुक बना देता है। उसी प्रकार इसी समय जंगल में अधोर कापालिक द्वारा उठाई गई सती पद्मिनी का रत्नेन्दु के नाम के साथ करुण क्रन्दन सुनाई पड़ता है और रत्नेन्दु उसकी रक्षा हेतु उस दिशा में जाता है, जहाँ से रोदन सुनाई पड़ता था। पद्मिनी के तेज, सौन्दर्य और आत्म बल का परिचय भी लेखक ने प्रत्यक्ष न देकर संवाद के माध्यम से करवाया है, जो अधिक ग्राह्य है। लेखक को इसकी कथावस्तु व चरित्र-चित्रण में तो सफलता प्राप्त हुई है लेकिन शिल्प-विधान भी काफी महत्वपूर्ण है। 'यह उपन्यास जीवन के तथ्य की अभिव्यंजना करता है। घटनाओं की प्रधानता है। लेखक ने पात्रों के चरित्र के भीतर बैठकर झांका है, जिससे चरित्र मूर्तिमान हो उठे हैं। भाषा विषय, भाव, विचार, पात्र और परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तित होती गई है। यद्यपि भाषा सम्बंधी अनेक भूलें इसमें रह गई हैं, तो भी भाषा का प्रवाह अक्षुण्ण है।' 1. नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य-परिशीलन, पृ० 63.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy