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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य-साहित्य का शिल्प-विधान
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पतन स्वाभाविक कारण व परिस्थितियों में होना चाहिए। लेखक ने परिवर्तन त्वरित वेग से दिखलाया है, जिससे अस्वाभाविकता आ गई है। जैनेन्द्र किशोर जी ने 'कमलिनी', सत्यवती, सुकुमाल और 'शरतकुमारी' नामक और भी धार्मिक उपन्यास लिखे हैं, लेकिन ये उपलब्ध नहीं हैं। "मनोवती' की भाषा-शैली :
इस उपन्यास में प्रभावोत्पादकता का अभाव है। मनोभावों की अभिव्यंजना करने के लिए जिस सजीव और प्रभावपूर्ण भाषा की आवश्यकता होती है, उसका इसमें प्रयोग नहीं किया गया है। + + + भाषा चलती-फिरती है। अनेक स्थलों पर लिंग दोष भी विद्यमान है। जहाँ एक ओर तड़की, सुनहरी, बोति, खरा, पराख, दिखोआ आदि देशी शब्द पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं, वहाँ दूसरी ओर आफ़ताब, महताब, मुराद, फसाद, कर्तृत, खातिरदारी, हासिल, हताश आदि अरबी-फारसी के शब्दों की भी भरमार है। आरा निवासी होने के कारण भोजपुरी का प्रभाव भी भाषा पर है। फिर भी बोलचाल की भाषा होने के कारण शैली में सरलता आ गई है।
इसी प्रकार उनके 'सुकुमाल' उपन्यास की भाषा शैली के सम्बंध में कहा जा सकता है। शैली की रोचकता एवं भाषा की स्वाभाविक सरलता के कारण जन्म-पुनर्जन्म की कथा होने पर भी पाठक को पढ़ने का आकर्षण रहता है।
उपर्युक्त कुछेक प्राप्त रचनाओं का शैली विषयक निरीक्षण-परीक्षण करने से यह भावना सहज जागृत हो जाती है कि चाहे यह विशाल मात्रा में उपलब्ध नहीं है, या चाहे आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रयुक्त नूतन शैलीगत विविधता, भाषा-शैली की सूक्ष्मता या गहराई, मनोवैज्ञानिक अन्तर्बाह्य विश्लेषणादि का प्रसार-प्रचार जैन उपन्यास साहित्य में उपलब्ध न हो तो भी इसका अपना विशिष्ट महत्व है। मनोरंजन तथा उच्चतम साहित्य की दृष्टि से उत्कृष्ट नहीं होने पर भी आध्यात्मिक चेतना व सद्-तत्त्वों के प्रसार के लिए ऐसे साहित्य का स्थान काफी ऊँचा है। रत्नेन्दु :
___मुनि श्री तिलक विजय जी ने इस उपन्यास की रचना की है। यदि वे इसी दिशा में आगे बढ़ते तो अवश्य जैन उपन्यास साहित्य को समृद्ध कर पाते जैन मुनि होने से अत्यन्त स्वाभाविक है कि आध्यात्मिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार का उद्देश्य रहता है तथा अपने धर्म के विचार-आचार का जन-मानस में फैलाने के लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए उन्होंने रोचक उपन्यास का सृजन करके 1. नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-भाग 2, पृ. 60.