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________________ 466 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य मुंडेर से उसे अलग नहीं किया गया है। महल के पूर्वार्द्ध वातायन ठीक उसी पर खुलते हैं। कृत्रिम का यह सीमान्त है और प्रकृति का आरंभ। ठीक महल की परिधा पर वे भयानवी झाड़ियाँ झुक आई है। महल को चारों ओर से घेर कर यह जो कृत्रिम परिधा बनी है, वह देखने में बिल्कुल प्राकृतिक-सी लगती है। बड़े-बड़े भीमाकार शिला खण्ड और चट्टानें उसके किनारे पर अस्त-व्यस्त बिखरे हैं, जिनमें पलाश और करोंदों की घनी झाड़ियाँ उगी हैं। विशद परिधा के अन्दर हरा-नीला पुरातन जल बारहों महीने भरा रहता है, बड़े-बड़े कछुए. अजगर, मच्छ और केकड़े उसमें तैरते दिखाई पड़ते हैं। विस्तार भय से प्रकृति एवं महल के भव्य वर्णन को आगे नहीं उद्धृत किया जाता। वीरेन्द्र जी जैसे कुशल शब्द-शिल्पी के लिए भव्य से भव्यतम वर्णनों का भंडार प्रस्तुत करना अत्यन्त आसान-सा प्रतीत होता है। पूरे उपन्यास में विविध-नयन रम्य वर्णन की माला देखते हुए अचानक ही बाण की 'कादम्बरी' या हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के 'बाणभट्ट की आत्मकथा' उपन्यास की बरबस याद आ जाती है। घटनाएँ, चरित्रों की दिव्यता-भव्यता से ऊपर प्रकृति, नगर, राजमार्ग आदि की अनेकानेक छटाओं के हृदयस्पर्शी चित्र अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं। उसी प्रकार प्रकृति का भयानक रूप, अगम्यता, दुरूहता आदि का 'मुक्ति दूत' में विस्तृत वर्णन आता है। अंजना व वसन्तमाला के जंगल-प्रयाण से ऐसे वर्णनों का प्रारंभ हो जाता है-कहीं-कहीं तो प्रकृति के मुग्ध, सुचारु वर्णन से पाठक प्रफुल्लता महसूस करता है, तो विशेष रूप से उसकी उग्रता और बीहड़ता देख भय, सन्नाटा का वातावरण फैल जाता है। ऐसे लम्बे वर्णनों से कभी-कभी ऊब-भी आ जाती है। वन-उपवन, नदी, जंगल, गुफा, खाई-खंदक, पहाड़ों की विषमता के चित्रों ने काफी पृष्ठ रोक लिये हैं, लेकिन वे हैं बिल्कुल सजीव और यथार्थ, कल्पना का मुक्त उड्डयन सच्चाई का साथ लेकर हुआ है। वह मातंगमालिनी नाम की अटवी, पृथ्वी के पुरातन महावनों में से एक है, जो अपनी अगमता के लिए आदिकाल से प्रसिद्ध है। + + + पृथ्वी और वनस्पतियों की अनुभूत शीतल गन्ध में अंजना और वसन्त की घहिर चेतना खो गई। ..... आसपास दृष्टि जाती है, उन तमिस्र की गुफाओं में विचित्र जन्तुओं और भयानवें पशुओं के झुंड चीत्कारें करते हुए संघर्ष मचा रहे हैं। इन्हीं के बीच उन्हें ऐसी मनुषकृतियाँ भी दीखती, जिनके बड़े-बड़े विकराल दांत मुँह से बाहर निकले हुए हैं, माथे पर उनके त्रिशूल से तीखे सींग है और अन्तहीन कषाय में प्रमत्त वे दिन-रात एक-दूसरे से भिट्टियाँ लड़ रहे हैं। .... कि 1. वीरेन्द्र जैन : मुक्तिदूत, पृ० 38.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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