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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
के संदर्भ में) कि इस उपन्यास के प्रत्येक 'सर्ग का प्रारंभ मधुर, स्वाभाविक प्रकृति वर्णन से ही होता है, चाहे रात्रि का, चन्द्रोदय, सूर्योदय, सूर्यास्त, उषा का, सांध्य बेला का वर्णन हो-लेकिन प्रकृति यहाँ स्वतंत्र न होकर उद्दीपक के रूप में ही आई है। पात्रों की मनोदशा को अभिव्यक्त करने के लिए प्रकृति भी उसी रंग में रंगी मिलती है, लेकिन कहीं-कहीं पशु-पक्षी की केलि क्रीड़ा का स्वतंत्र वर्णन भी है, यथा-समस्त पशु-पक्षी प्रसन्न चित्त दिखलाई पड़ते हैं। सूखे पड़े हुए मेंढकों के शरीर में जीव आ गये हैं। वे इधर-उधर उछलते हुए बड़े-बड़े बक्कियों के मद को मात कर रहे हैं। सारस, हंस, मयूर आदि पक्षी चैन से क्रीड़ा कर रहे हैं। पानी के बहुत समीप बकगणों का ध्यान लग रहा है। एक साथ चलते हुए एक साथ मधुर शब्द करते हुए और एक साथ उड़ते हुए स्नेहमय सारस के सरस जोड़ों को देखकर भूपसिंह के हृदय में शीघ्र ही प्राप्त होने वाले दाम्पत्य प्रेम की मीठी-मीठी कल्पनाएं उठने लगीं। कोकिला के कोमल आलाप से चित्त उत्कंठित होने लगा और मयूरों के आनंद-नृत्यों से मुख पर स्वेद झलकने लगा। ___ 'सन्ध्या हुई। वरुण दिशा के पास सूर्यदेव आये। देखते ही उसके गालों पर ललाई दौड़ आई। बड़े प्रेम से उसने उसकी अभ्यर्थना की। क्षितिज-मण्डल पर दूर-दूर तक गुलाल नजर आने लगा। धीरे-धीरे संध्या हो गई। प्रभाकर महाराज आँखें मिलाते-मिलाते मुँह ढकने की ताक में लगे। प्राची देवी उनकी यह दशा देख धीरे-धीरे विकट रूप धारण करके कोप परिस्फुटित लाल-लाल
आँखें दिखाने लगी। परन्तु इस ललाई का फल कुछ भी नहीं हुआ। वे घृष्ट नायक बन के चल ही दिये। उनके जाने की देरी थी कि अन्धकार महाशय आ धमके। भूमि, वृक्ष, लता-पत्तादिकों पर क्रम से काले परदे पड़ गये। ऐसा जान पड़ने लगा कि मानों यामिनी-कामिनी को वैधव्य दीक्षा देने के लिए काली साड़ी पहिनाई गई है।' प्रकृति पात्रों के सुख-दु:ख आदि भावनाओं के अनुसार उल्ललित या उदास रहती है। उद्दीपक के रूप में प्रकृति का जहाँ वर्णन हुआ है, वहाँ उपदेशात्मक रूप में भी प्रकृति दृश्यमान होती है। प्रकृति के छोटे-छोटे सुन्दर सुरम्य चित्रों की वजह से आध्यात्मिक विचारधारा नीरस या बोझिल नहीं हो जाती।
1. 'सर्ग' का प्रयोग काव्य में होता है, गद्य-साहित्य में 'अध्याय' के लिए 'सर्ग'
शब्द प्रयोग नहीं होता, लेकिन यहाँ लेखक ने किया है। 2. द्रष्टव्य-सुशीला-उपन्यास, पृ. 130. 3. वही, पृ. 92.