________________
448
आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
निर्धारित होता है। कहीं-कहीं प्राकृतिक वर्णनों में प्रतीकात्मकता का उपयोग भी लेखक करता है, जो अधिक ग्राह्य भी होते हैं। अतः वास्तविकता, सौंदर्य, विस्तार व गांभीर्ये पैदा करने के लिए कथा के अनुरूप वातावरण, वर्णन सदैव आवकार्य होना चाहिए। भाषा-शैली :
उपन्यास का यह तत्त्व बाह्य तत्त्व होने पर भी काफी महत्व रखता है। उपन्यासकार की भाषा-शैली पात्रानुकूल व प्रसंगानुकूल होने के साथ उसमें स्वाभाविकता, सरलता, लाघवता, व माधुर्य का गुण भी साथ में अपेक्षित रहता है। शैली की जीवन्तता, मार्मिकता एवं तर्क संगतता पर लेखक की कसौटी होती है। जितनी अधिक स्वाभाविकता व सरसता रहेगी, भाषा शैली में उतना अधिक निखार व मौलिकता का दर्शन होता है। व लेखक की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ इन्हीं की बदौलत हो जाती हैं। आधुनिक युग में तो विविध शैलियों से कथा साहित्य का सृजन किया जाता है। कहीं-कहीं भाषा शैली लेखक के अपने विचार-सिद्धान्त के अनुकूल रहती है, जिसमें कथा वस्तु और पात्र-विश्लेषण में निरर्थकता और नीरसता आ जाती है। जबकि पात्रानुकूल भाषा के स्वरूप से पात्रों की भिन्न-भिन्न परिस्थितियाँ व स्तर तुरंत स्पष्ट होकर उजागर हो जाते हैं। शैली की नूतनता से पाठक बंध-सा जाता है और रोचकता बनाये रखने की आवश्यकता अपने आप आ जाती है। जिस प्रकार कथा के आंतरिक मूल तत्त्वों का विशिष्ट महत्व है, बिना उसके कथा का सृजन संभव नहीं, इसी प्रकार बाह्य तत्त्व के रूप में भाषा-शैली शिल्पगत विशिष्टताओं का भी अपना विशिष्ट स्थान है। भाषा-शैली की साज-सज्जा, चमक-दमक, कोमलता, स्वाभाविकता, ध्वन्यात्मकता, मनोवैज्ञानिकता के बिना उपन्यास फीका, रूप-रसहीन रह जाता है। रमणीयता एवं रोचकता का गुण भाषा शैली की नूतनता, स्वाभाविकता सुन्दरता पर ही अवलंबित है। उद्देश्य :
सभी रचनाओं में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से उद्देश्य तत्त्व संलग्न रहता है। उद्देश्य रहित स्वकृति प्रायः पाठक को कम अपील करती है। जीवन की विविध अनुभूतियों में से किसी न किसी की अभिव्यक्ति लेखक करता है। उपन्यास में भी जीवन के किसी अंश या आदर्श की, या विचारधारा की व्याख्या या विश्लेषण अन्य तत्त्वों के जरिये से करता है। जीवन-दर्शन का अभिगम सूक्ष्मतः उपन्यासकार व्यक्त करता है, तो रचना का सौन्दर्य बढ़ता है लेकिन मुखर हो जाता है तो उपन्यास की रसात्मकता में बाधा पहुंच जाने से निबंध या दर्शन